Thursday, 12 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 12 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग

        कर्म का सम्बन्ध वर्तमान से होता है और चिन्तन का भूत और भविष्य से। चिन्तन तो केवल उसी का करना है, जिसकी उपलब्धि कर्म से न हो । अपने कर्त्तव्य द्वारा परिस्थितियों का सदुपयोग न करने से परिस्थितियों में, अवस्थाओं में और वस्तुओं में आसक्ति दृढ़ हो जाती है, जो  साधन का निर्माण नहीं होने देती। हमारा वास्तविक जीवन सभी वस्तु, अवस्था एवं परिस्थितियों से अतीत है । इस जीवन से देश-काल की दूरी नहीं है। हम निज-ज्ञान का अनादर करके अपने उस निज-जीवन से विमुख हो गये हैं। यह विमुखता प्रमादमात्र है और न जानने की दूरी उत्पन्न करती है । यह रहस्य जान लेने पर हम परिस्थितियों से असंग होकर अपने वास्तविक जीवन से अभिन्न हो जाते हैं, अथवा यों कहिये कि सभी परिस्थितियों से विमुख होकर अपने लक्ष्य के सम्मुख हो जाते हैं । परिस्थितियों के सदुपयोग अथवा उनसे विमुख होने में सब भाई-बहिन सर्वदा स्वतन्त्र हैं । कारण कि परिस्थितियों की आसक्ति केवल अविचार-सिद्ध है, जो निज-ज्ञान का आदर करने से स्वत: मिट जाती है और हम सुगमतापूर्वक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं।

        साधन रूप जीवन ही मानवता है, जो सब भाई-बहिनों में बीज रूप से विद्यमान है और जिसे प्राप्त विवेक के प्रकाश में विकसित करना है । कारण कि, विवेक का प्रकाश हमारे दोषों को मिटाने में समर्थ है । ज्यों-ज्यों हम अपने बनाये हुए दोषों को मिटाते जाते हैं, त्यों-त्यों हमारा जीवन साधन-युक्त होता जाता है। अपने बनाये हुए सभी दोष मिट जाने पर, समग्र जीवन ही साधन बन जाता है और साधन जीवन का केवल एक अंग मात्र नहीं रहता, अर्थात् जाग्रत अवस्था से सुषुप्ति पर्यन्त और जन्म से मृत्यु पर्यन्त प्रत्येक प्रवृत्ति साधन बन जाती है और यही मानव जीवन है । जीवन इस प्रकार का हो जाने पर, प्रत्येक साधक साधन-तत्व से अभिन्न हो जाता है । 

        सिद्धान्त रूप से देखा जाय तो साधन-तत्व साध्य का स्वभाव ही है । साध्य से साधन-तत्व को पृथक नहीं किया जा सकता । साधन-तत्व ही साधक का अस्तित्व है । इससे यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि साधक की साध्य से जाति और स्वरूप की एकता है और भिन्नता तो केवल मानी हुई है, जो अवस्था और परिस्थितियों की आसक्ति से उत्पन्न हो गई है। उसे मिटाने में और जिससे जाति तथा स्वरूप की एकता है, उसे प्राप्त करने में साधक सर्वदा स्वतन्त्र है । अत: मानव को 'मानव' होने से निराश होने का कोई कारण नहीं है ?

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 2-4) ।