Friday 13 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 13 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग

        साधारणतया हम बुद्धि और विवेक को एक मान लेते हैं, परन्तु विचार करने पर यह स्पष्ट होता है कि बुद्धि तो एक प्राकृतिक यन्त्र के समान है और विवेक प्रकृति से अतीत अर्थात् अलौकिक तत्व है । जैसे, बिद्युत एक शक्ति है और उसका प्रकाश सर्व साधारण को बल्ब आदि के साधनों द्वारा प्रतीत होता है; विज्ञान का ज्ञाता ही इस बात को जानता है कि प्रकाश बल्ब का नहीं, विद्युत का है । इसी प्रकार साधारण प्राणी अलौकिक विवेक को बुद्धि का गुण मानता है; किन्तु तत्वदर्शी बुद्धि को विवेक का प्रकाश-मात्र मानता है ।

        विवेक अपरिवर्तनशील और बुद्धि परिवर्तनशील है । बुद्धि प्रकृति का कार्य है और विवेक प्रकृति से परे की अलौकिक विभूति है। जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से ही दीपक और विद्युत् का प्रकाश प्रकाशित होता है, उसी प्रकार अलौकिक विवेक के प्रकाश से ही बुद्धि और इन्द्रियों का ज्ञान प्रकाशित होता है । जब प्राणी अलौकिक विवेक के प्रकाश से अपनी बुद्धि को शुद्ध कर लेता है, तब शुद्ध बुद्धि मन को निर्मल कर देती है । और, मन की निर्मलता इन्द्रियों के व्यापार में शुद्धता का संचार कर देती है। इन्द्रियों के शुद्ध व्यापार से ही मनुष्य के चरित्र का निर्माण होता है और सच्चरित्रता से समाज सुन्दर बनता है । अत: यह सिद्ध हुआ कि विवेक का आदर करने में ही सुन्दर समाज के निर्माण का सामर्थ्य निहित है और अपना कल्याण भी विवेक के आदर से ही सम्भव है ।

        इसके विपरीत जब प्राणी निज-विवेक का अनादर करता है, तब इन्द्रियों के ज्ञान को ही पूरा ज्ञान मान बैठता है, जो वास्तव में प्रमाद है । इन्द्रियों के ज्ञान को सही ज्ञान मान लेने पर राग उत्पन्न होता है । राग से भोग में प्रवृत्ति होती है, जो प्राणी में स्वार्थ-भाव दृढ़ कर देती है । स्वार्थ-भाव दृढ़ होते ही असीम प्यार मिट जाता है, जिसके मिटते ही देहाभिमान पुष्ट हो जाता है। देहाभिमान पुष्ट हो जाने पर भिन्न-भिन्न प्रकार की वासनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं जो प्राणी को पराधीनता, जड़ता और शोक में आबद्ध कर देती हैं ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 4-5) ।