Saturday 14 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 14 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल नवमीं, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग

        जब प्राणी इन्द्रियों के ज्ञान को ही पूरा ज्ञान नहीं मानता, तब बुद्धि के ज्ञान का आदर करने लगता है । बुद्धि का ज्ञान वस्तु, अवस्था और परिस्थितियों की नित्यता को खा लेता है और उनमें सतत् परिवर्तन का दर्शन कराता है, जिससे राग वैराग्य में बदलने लगता है और भोग योग में बदल जाता है । योग हमें जड़ता से चिन्मयता और पराधीनता से स्वाधीनता एवम् अनित्य से नित्य की ओर प्रेरित कर देता है, अर्थात् विषयों से विमुख होकर इन्द्रियाँ मन में और मन बुद्धि में विलीन हो जाता है । मन के विलीन होते ही बुद्धि सम हो जाती है । बस, यही योग है । इसके दृढ़ होने पर जो बुद्धि से परे अलौकिक विवेक है उससे अभिन्नता हो जाती है और अविवेक सदा के लिये मिट जाता है । विवेक से अभिन्न होते ही अमर जीवन की प्राप्ति होती है, जो मानव की माँग है । अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि अलौकिक विवेक के आदर से ही हम अपना कल्याण तथा सुन्दर समाज का निर्माण कर सकते हैं, जो मानवता है । 

        यह मानवता हमें सुख-दुःख का सदुपयोग करने के लिये मिली है, इनके उपभोग-मात्र के लिये नहीं । यदि प्राकृतिक नियमानुसार विचार किया जाय, तो सुख-दुःख का उपभोग तो मानव-जीवन के अतिरिक्त अन्य योनियों में भी किया जा सकता है । सुख-दुःख का सदुपयोग करने पर मानव सुख-दुःख से अतीत जो अनन्त चिन्मय जीवन है, उससे अभिन्न हो सकता है। सुख का सदुपयोग उदारता और दुःख का सदुपयोग विरक्ति है। उदारता आ जाने पर हृदय पराये दुःख से भर जाता है और फिर मानव करुणित होकर प्राप्त सुख को दुखियों  को समर्पित कर देता है । करुण रस ज्यों-ज्यों सबल तथा स्थायी होता जाता है, त्यों-त्यों सुख की आसक्ति स्वत: गलती जाती है। सुखासक्ति गल जाने पर भोग वासनाएँ समाप्त हो जाती हैं ।  

        भोग-वासना मिटते ही तत्व जिज्ञासा स्वतः जागृत होती है, जो स्वत: पूर्ण हो जाती है । कारण कि, जिसमें जातीय तथा स्वरूप की एकता है, उसकी प्राप्ति के लिए कोई प्रयत्न अपेक्षित नहीं है, केवल उसकी आवश्यकता की जागृति ही उसकी प्राप्ति का उपाय है । अर्थात् उसके लिए कोई कर्म- अनुष्ठान अपेक्षित नहीं है । जिसके लिए किसी कर्म विशेष की अपेक्षा नहीं होती, उसके लिए किसी वस्तु, अवस्था, व्यक्ति अथवा परिस्थिति-विशेष की आवश्यकता नहीं होती । परिस्थितियों की आवश्यकता तो सुख-दुःख के भोगने के लिये ही होती है । यह अवश्य है कि परिस्थितियों से असंग होने के लिये प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करना अनिवार्य है । आस्तिक परिस्थितियों का सदुपयोग अपने प्रभु के नाते करता है, अध्यात्मवादी सर्वात्म-भाव से करता है और भौतिकवादी विश्व के नाते करता है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 5-7) ।