Sunday, 15 September 2013
(भाद्रपद शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०७०, रविवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग
यह नियम है कि जो प्रवृत्ति जिस सद्भावना से प्रेरित होकर की जाती है उस प्रवृत्ति का कर्त्ता उसी भावना में विलीन हो जाता है । अत: प्रभु के नाते की हुई प्रवृत्ति जीवन को प्रभु के प्रेम से भर देती है, सर्वात्म-भाव से की हुई प्रवृत्ति आत्मरति उत्पन्न कर देती है और विश्व के नाते की हुई प्रवृत्ति विश्व के प्यार से भर देती है। प्रेम, रति तथा प्यार में यह सामर्थ्य है कि वे किसी प्रकार का स्वार्थ-भाव तथा भोग-वासना शेष नहीं रहने देते । यह प्रत्येक भाई-बहन का अनुभव है कि स्वार्थ-भाव तथा भोग-वासना के बिना किसी भी दोष की उत्पत्ति नहीं हो सकती, अर्थात् जीवन निर्दोषता से परिपूर्ण हो जाता है । यह भी नियम है कि दोष की पुनरावृत्ति न होने पर सभी दोष स्वत: मिट जाते हैं, क्योंकि दोषों की स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती, किसी गुण के अभिमान पर ही वे जीवित रहते हैं । निर्दोषता दोषों को उत्पन्न नहीं होने देती और गुणों के अभिमान को भी खा लेती है, यह उसका स्वभाव ही है। गुणों का अभिमान तब होता है, जब प्राणी स्वाभाविक गुणों को त्यागकर दोषों को अपनाने के पश्चात् पुन: बलपूर्वक दोषों को दबाता है और जीवन में गुणों की स्थापना करता है ।
यह नियम है कि कर्त्तृत्वाभाव से जिसकी स्थापना की जाती है, वह स्वाभाविक नहीं होती और जो स्वाभाविक नहीं है, उसको अभिमान के बल से जीवित रखना पड़ता है । अभिमान भेद उत्पन्न करता है और भेद प्रीति को सीमित कर देता है। सीमित प्रीति दोषों को जीवित रखती है । अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि जब तक हमारे जीवन में कोई भी गुण कर्त्तव्य के अभिमान के साथ रहता है, तब तक उसके आधार पर दोषों को जीवन मिलता रहता है, क्योंकि गुण को, जो स्वाभाविक सत्ता थी, अपनी स्थापित की हुई वस्तु मान लिया गया है । जैसे मिथ्या बोलने से पूर्व सभी सत्य बोलते थे, किसी ने आरम्भ से ही मिथ्या नहीं बोला । मिथ्या बोलने का स्वभाव तो निज-विवेक का अनादर करके उत्पन्न किया था ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 7-8) ।