Wednesday, 30 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 30 November 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दुःख का प्रभाव 

    प्राकृतिक नियमानुसार सर्वांश में कोई भी परिस्थिति सुखमय तथा दुःखमय नहीं होती, अर्थात् उत्पन्न हुई प्रत्येक परिस्थिति आंशिक सुख तथा दुःख से युक्त है। आंशिक दुःख जब आंशिक सुख के प्रलोभन को सुख-काल में ही नष्ट कर देता है, तब उसे दुःख का प्रभाव समझना चाहिए । दुःख के रहते हुए और यह जानते हुए कि आया हुआ आंशिक सुख किसी भी प्रकार नहीं रहेगा, सुख-भोग की रूचि तथा उसकी आशा रखना दुःख का भोग है । सुख-काल में भी सुख-भोग का त्याग पुरुषार्थ से साध्य है। किन्तु दुःख के प्रभाव के बिना सर्वांश में दुःख का नाश किसी भी प्रकार साध्य नहीं है ।

        दुःख में सुख की आशा दुःख का भोग है । सुख में दुःख का दर्शन दुःख का प्रभाव है । भूख से पीड़ित प्राणी भोजन की आशा में सुख का अनुभव करने लगता है । यद्यपि सुख स्वरूप से नहीं होता, तथापि सुख-भोग की स्मृति उसे दुःख-काल में भी सुख का भास कराती है । उसी प्रकार सुख का भोग करते हुए सुख के न रहने की अनुभूति, सुख में ही दुःख का दर्शन कराती है, जिस प्रकार संयोग-काल में ही वियोग का भय होने लगता है ।

        दुःख का प्रभाव सजगता और दुःख का भोग जड़ता प्रदान करता है । सजगता असावधानी को नष्ट करती है; क्योंकि वह चिन्मय जीवन की ओर अग्रसर करती है । जड़ता चिन्मय जीवन से विमुख कर, मानव को सुख के प्रलोभन, दासता और आशा में आबद्ध करती है । जड़ता से चेतना की ओर अग्रसर होने के लिए दुःख के भोग का अन्त कर उसके प्रभाव को अपनाना अनिवार्य है।

        अपने आप जानेवाला जो सुख है, उसके न रहने का अनुभव यदि सुख-काल में ही कर लिया जाय, तो बहुत ही सुगमतापूर्वक सुख के भोग का नाश और दुःख के प्रभाव की अभिव्यक्ति हो सकती है । सुख-काल में सुख के जाने की विस्मृति ने ही दुःख का आह्वान किया है । इस कारण सुख का भोग करते हुए कोई भी प्राणी किसी भी प्रकार से दुःख से बच ही नहीं सकता, यह निर्विवाद सत्य है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 22)

Tuesday, 29 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 29 November 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दुःख का प्रभाव 

      दुःख का प्रभाव सुख-लोलुपता का अन्त कर मानव को सुख की आशा से मुक्त कर देता है । सुख की आशा से रहित होते ही सुख-दुःख से अतीत के जीवन की तीव्र जिज्ञासा तथा उत्कट लालसा जाग्रत होती है, जो विकास का मूल है ।

        सुख के न रहने अथवा उसके चले जाने की सम्भावना से दुःख की प्रतीति होती है । दुःख की प्रतीति होने पर यदि असावधानी से सुख की आशा उत्पन्न हो गई, तो दुःख का भोग होगा, प्रभाव नहीं । यदि आए हुए दुःख ने सुख की आशा को उत्पन्न नहीं होने दिया, अपितु प्राप्त सुख में भी दुःख का दर्शन करा दिया, तो यह दुःख का प्रभाव है । सुख में दुःख का दर्शन होते ही सुख के भोग की रूचि का नाश होता है, जिसके होते ही सुख-लोलुपता तथा सुख की आशा शेष नहीं रहती और फिर स्वतः दुःख का प्रभाव, दुःख का अन्त कर वास्तविक जीवन से साधक को अभिन्न कर देता है ।

        दुःख का भोग दुखी को न तो सुखी कर पाता है और न दुःख का ही अन्त होता है, अपितु बेचारा दुःख का भोगी सुख की आशा में ही आबद्ध रहता है । इस दृष्टि से दुःख का भोग दुखी का अहित ही करता है । दुःख के प्रभाव तथा उसके भोग का अन्तर स्पष्ट हो जाने पर प्रत्येक दुखी दुःख के प्रभाव को अपनाकर कृतकृत्य हो सकता है ।

        दुःख का भोग जड़ता और दुःख का प्रभाव चेतनता प्रदान करता है । सुख के भोगी को दुःख विवश होकर भोगना ही पड़ता है। सुख-भोग की रूचि बनाये रखने पर दुःख का भोग होता ही रहता है । इस कारण सुख-भोग की रूचि का नाश अनिवार्य है, जो दुःख के प्रभाव से ही सम्भव है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 21)

Monday, 28 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 28 November 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दुःख का प्रभाव 

        सुख की दासता रखते हुए दुःख का भय किसी भी प्रकार मिट नहीं सकता। इस कारण सुख की दासता का अन्त करना अनिवार्य है। सुख की दासता आए हुए सुख को सुरक्षित नहीं रख पाती, फिर भी सुख का भोगी उसका त्याग नहीं कर सकता । यह कैसी विडम्बना है ! सुख की दासता ही दुःख का भोग कराती है, दुःख का प्रभाव नहीं होने देती । दुःख का प्रभाव सुख-काल में भी सुख की दासता से मुक्त कर देता है । इस दृष्टि से आए हुए दुःख का प्रभाव विकास का मूल है । पर यह रहस्य वे ही जान पाते हैं, जिन्होनें सुख-दुःख की वास्तविकता को भलीभाँति निज-विवेक के प्रकाश में अनुभव किया है ।

        वस्तुतः दुःख का भय ही दुखी को दुःख के भोग में प्रवृत करता है, उसका प्रभाव नहीं होने देता । जिस अनुकूलता के जाने का दुःख है, क्या वह अनुकूलता किसी भी प्रयास से सुरक्षित रह सकती है ? कदापि नहीं । प्रतिकूलता, अनुकूलता की दासता का अन्त करने के लिए आती है । उससे भयभीत होना भूल है। अनुकूलता करुणित बनाने के लिए आती है । उसका भोग करना प्रमाद है । इस दृष्टि से अनुकूलता तथा प्रतिकूलता सदैव नहीं रहेंगी । इन दोनों का सदुपयोग अनिवार्य है । इनमें जीवन-बुद्धि स्वीकार करना असावधानी है । असावधानी के समान और कोई बात अहितकर नहीं है । असावधानी का मानव-जीवन में कोई स्थान ही नहीं है । इस कारण वर्तमान में ही सजगतापूर्वक असावधानी का अन्त करना अनिवार्य है ।

        निज-विवेक के अनादर से ही असावधानी उत्पन्न होती है। असावधानी किसी और की देन नहीं है और न किसी कर्म-विशेष का ही फल है, अपितु उत्पन्न हुई असावधानी निज-विवेक का आदर करने से स्वतः नष्ट हो जाती है । दुःख का प्रभाव निज-विवेक के आदर में हेतु है और दुःख का भोग अविवेक को पोषित करता है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 20-21)

Sunday, 27 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 27 November 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०६८, रविवार)
        
दुःख का प्रभाव 
    
     प्राकृतिक नियमानुसार जो न चाहने पर भी प्रत्येक प्राणी के जीवन में आ ही जाता है, वही दुःख है और जो चाहते हुए भी नहीं रहता, वही सुख है । ऐसे दुःख-सुख को बलपूर्वक रोकना अथवा बनाये रखना किसी भी प्राणी के लिए सम्भव नहीं है। जिसका रोकना सम्भव नहीं है, उसका आदरपूर्वक स्वागत करना अनिवार्य है और जिसके सुरक्षित रखने में सभी असमर्थ हैं, उसमें जीवन-बुद्धि स्वीकार करना प्रमाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

        यह नियम है कि जिसे बलपूर्वक नहीं रोक पाते, उसके आने पर भयभीत होना और जो न चाहते हुए भी चला जाता है, उसकी दासता का अंकित होना - साधारण प्राणियों के लिए स्वाभाविक - सा है; यद्यपि वास्तविक माँग की खोज करने पर स्पष्ट विदित होता है कि भय तथा दासता से युक्त जीवन किसी को भी अभीष्ट नहीं है । इस दृष्टि से मानव-जीवन की मौलिक माँग सब प्रकार के भय तथा दासता से मुक्त होना है । 
 
        मंगलमय विधान के अनुसार माँग की पूर्ति प्रत्येक परिस्थिति में सम्भव है । कामना-पूर्ति कामना के अनुरूप परिस्थिति में ही सम्भव है, परन्तु माँग की पूर्ति प्रत्येक परिस्थिति में होती है । अतएव परिस्थिति-भेद होने पर माँग की पूर्ति से निराश होना अथवा किसी परिस्थिति विशेष का आह्वान करना असावधानी तथा भूल से भिन्न और कुछ नहीं है ।

        भयभीत होने पर प्राप्त सामर्थ्य, योग्यता तथा वस्तु का सद्व्यय नहीं हो पाता और प्राकृतिक नियमानुसार, भयभीत होने से आवश्यक विकास भी नहीं होता; कारण कि भय  से शक्ति क्षीण होती है और असावधानी और प्रमाद पोषित होते हैं, जो विनाश का मूल है । भय का सर्वांश में नाश करने के लिए अपने-आप आए हुए दुःख का प्रभाव आवश्यक है, उसका भोग नहीं।

        दुःख का भोग, गए हुए सुख की दासता तथा लोलुपता एवं उसकी आशा में आबद्ध करता है । जिसे किसी भी प्रकार न रख सकें, उसकी दासता, लोलुपता एवं आशा करना किसी के लिए भी हितकर नहीं है । इस दृष्टि से दुःख के भय तथा सुख की दासता का मानव-जीवन में कोई स्थान ही नहीं है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 19-20)

Saturday, 26 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 26 November 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, शनिवार)
          
(गत ब्लागसे आगेका)
हम क्या करें ? 

        अपने लिए किसी अन्य की अपेक्षा न हो; अपितु अपने में जो प्रेमास्पद है, उसी की प्रीति अपना जीवन हो जाय। प्रीति और प्रीतम के नित्य-विहार में ही अनन्त, अविनाशी, नित्य-नव रस की अभिव्यक्ति होती है । उसकी उपलब्धि ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य है, जिसकी प्राप्ति एक-मात्र सवाधीनता का सदुपयोग एवं स्वाधीन होने में है । यह जीवन का सत्य है ।

        सत्य से अभिन्न होने के लिए यह ज्ञानपूर्वक अनुभव करना है कि संसार में मेरा कुछ नहीं है, मेरा किसी पर कोई अधिकार नहीं है, अपितु मुझपर सभी का अधिकार है। बुराई-रहित होने से सभी के अधिकार की रक्षा स्वतः हो जाती है और भलाई का अभिमान तथा फल छोड़ देने से मानव स्वाधीन होकर, अपने में अपने को सन्तुष्ट कर अविनाशी जीवन से अभिन्न हो जाता है और फिर अनन्त की अहैतुकी कृपा से उदारता तथा प्रेम की स्वतः अभिव्यक्ति होती है ।

        "मेरा कुछ नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिए" - यह मानव का पुरुषार्थ है । सर्व-समर्थ प्रभु अपने हैं, सब कुछ प्रभु का है - यह वेद-वाणी तथा गुरुवाणी के द्वारा विकल्प-रहित विश्वासपूर्वक स्वीकार करना चाहिए । विश्वास से भिन्न प्रभु-प्राप्ति का और कोई उपाय नहीं है । निर्विकारता, चिर-शान्ति तथा अविनाशी जीवन ज्ञान से सिद्ध है और सबकुछ प्रभु का है, प्रभु अपने हैं - यह विश्वास से सिद्ध है । विश्वास भी बल तथा ज्ञान के समान दैवी-तत्व है ।

        बल जगत् की सेवा के लिए है और ज्ञान भूल-रहित होने के लिए है और विश्वास से ही प्रभु से आत्मीय सम्बन्ध होता है। बल का उपयोग विज्ञान से होता है अथवा यों कहो कि विज्ञान भी एक प्रकार का बल है, उसका कभी भी दुरूपयोग नहीं करना चाहिए। बल का दुरूपयोग न करना मानवता है अर्थात् जीवन-विज्ञान है। सदुपयोग के अभिमान तथा फलासक्ति से रहित होना अध्यात्मवाद अर्थात् मानव-दर्शन है । जीवन-विज्ञान हमें उदारता तथा अध्यात्म-विज्ञान हमें स्वाधीन होने की प्रेरणा देता है । प्रभु अपने हैं, अपने में हैं - यह आस्था हमें प्रेम-तत्व से अभिन्न करती है ।

        उदारता, स्वाधीनता एवं प्रेम ही जीवन है, जिसकी माँग बीज-रूप से मानव-मात्र में विद्यमान है । जीवन का जो सत्य है उसे स्वीकार करने से ही भूल की निवृति एवं योग, बोध, प्रेम की प्राप्ति होती है । यह अनुभव-सिद्ध सत्य है ।

- 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से (Page No. 16-18)

Friday, 25 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 25 November 2011
(मार्गशीर्ष अमावस्या, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)
        
 (गत ब्लागसे आगेका)
हम क्या करें ? 

        दूसरों के द्वारा बलपूर्वक व्यक्तिगत सम्पत्ति के विभाजन-मात्र से समाज की गरीबी नहीं मिटेगी । अपितु समाज में आलस्य और विलास की ही वृद्धि होगी, जो दरिद्रता का मूल है। राष्ट्रगत सम्पत्ति हो जाने से सरकार के नाम पर समाज में एक नौकरशाही वर्ग उत्पन्न हो जाता है । समाज में बहुत थोड़े से लोगों के हाथों में देश की सारी सामर्थ्य आ जाती है । सामर्थ्य का अल्प संख्या में एकत्रित हो जाना, व्यक्तियों को सामर्थ्य के अभिमान में आबद्ध करना है, जो विनाश का मूल है । जब अधिक संख्या में सामर्थ्य विभाजित रहती है, तब मानव स्वाधीनतापूर्वक एकता तथा समता की ओर अग्रसर होता है ।

        अकिंचन तथा स्वाधीन होने से व्यक्ति को अपने लिए सामर्थ्य की अपेक्षा नहीं रहती । फिर वह देहातीत अर्थात् जगत् से परे के जीवन को पाकर सन्तुष्ट हो, उदार तथा प्रेमी स्वतः हो जाता है, जिससे मानव की जगत् और जगत् के प्रकाशक से वास्तविक एकता हो जाती है । स्वाधीनता, उदारता और प्रेम उसका जीवन हो जाता है ।

        उदारता, स्वाधीनता एवं प्रेम अविनाशी तथा अनन्त तत्व हैं अथवा यों कहो कि प्रभु का स्वभाव और मानव का जीवन है। पराश्रय से गरीबी नाश नहीं होती । इसी कारण सम्पत्ति के आश्रित शान्ति नहीं मिलती । परिश्रम पर-सेवा के लिए है। उसके बदले में अपने को कुछ नहीं चाहिए । तभी मानव श्रम के अन्त में विश्राम को पाकर, स्वाधीन होकर, उदार तथा प्रेमी हो जाता है। हमें यही करना है कि स्वाधीनता का सदुपयोग कर स्वाधीन हो जाएँ ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से (Page No. 16)

Thursday, 24 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 24 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हम क्या करें ? 

        हम क्या करें ? यह एक सजग मानव की माँग है। इस सम्बन्ध में गम्भीरतापूर्वक विचार करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि मिली हुई स्वाधीनता का दुरूपयोग न करें, अपितु पवित्र भाव से सदुपयोग करें अथवा यों कहो दुरूपयोग न करने पर सदुपयोग स्वतः होगा । यह एक प्राकृतिक विधान है । हाँ, विचारपूर्वक किए हुए सदुपयोग का अभिमान न करें और उसका अपने लिए फल न माँगें।
      
         केवल कर्तव्य-बुद्धि से करने की बात है, जिससे विद्यमान राग की निवृति हो जाय । राग-निवृति से ही स्वतः योग प्राप्त होता है । यह प्रकृति से परे का विधान है । योग की पूर्णता से बोध एवं प्रेम की अभिव्यक्ति होती है । यह प्रभु का मंगलमय विधान है । प्रकृति का विधान कर्तव्य-विज्ञान और प्रकृति से परे का विधान अध्यात्मवाद एवं प्रभु का मंगलमय विधान आस्तिकवाद है ।

        यह सर्वमान्य सत्य है कि प्रत्येक मानव में करने, जानने और मानने की सामर्थ्य है । वह उसे अपने रचयिता से प्राप्त हुई है। वह किसी प्रयास का फल नहीं है । इतना ही नहीं, यदि यह मान लिया जाय कि इन तत्वों की प्राप्ति से ही प्रयास का आरम्भ होता है, तो अत्युक्ति न होगी । सामर्थ्य का दुरूपयोग न करना कर्तव्य-विज्ञान है, इससे मानव, जगत् के लिए उपयोगी होता है; किन्तु जगत् में अपना कुछ नहीं है । अतः अपने को जगत् से कुछ नहीं चाहिए । यह अध्यात्म-विज्ञान अर्थात् मानव-जीवन का दर्शन है । दर्शन हमें स्वाधीन होने की प्रेरणा देता है ।
          
        निर्मम तथा निष्काम होने से ही स्वाधीनता से अभिन्नता होती है । जीवन-विज्ञान बुराई-रहित होने की प्रेरणा देता है और फिर स्वतः परिस्थिति के अनुसार भलाई होने लगती है । यही भौतिकवाद तथा कर्तव्य-विज्ञान है । यह कर्तव्य मानव को स्वतः करना चाहिए । यही मानवीय साम्य है, सच्चा साम्य है । यह साम्य मानव को स्वाधीनतापूर्वक अपने द्वारा अपने लिए अपनाना चाहिए । तभी व्यक्तिगत क्रान्ति से समाज और व्यकित में एकता होगी ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से (Page No. 15-16)

Wednesday, 23 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 23 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)
      
 (गत ब्लागसे आगेका)
जीवन-क्रान्ति की दिशा में एक अमर संदेश 
02-12-1972
       
         मानव-मात्र में बीज रूप से मानवता विद्यमान है। उस विद्यमान मानवता को विकसित करने के लिए, एकमात्र सत्संग-योजना ही अचूक उपाय है । बलपूर्वक जो परिवर्तन आता है, वह स्थायी नहीं होता है और उसकी प्रतिक्रिया भी होती है । गुण-दोष व्यक्तिगत हैं । किसी वर्ग विशेष को सदा के लिए हृदयहीन, बेईमान मान लेना न्यायसंगत नहीं है । सभी वर्गों में भले व बुरे व्यक्ति होते हैं । जीवन के परिवर्तन से क्रान्ति आती है, परिस्थिति-परिवर्तन से नहीं ।

        जीवन में परिवर्तन, जाने हुए असत् के त्याग से होता है, बल से नहीं । असत् के त्याग की प्रेरणा व्यापक हो सकती है, व्यक्तिगत सत्संग के प्रभाव से । क्या आप यह नहीं जानते हैं कि एक-एक महापुरुष के पीछे हजारों व्यक्ति चलते हैं, लेकिन हजारों व्यक्ति मिलकर एक महापुरुष नहीं बना सकते ?

        अधिकार-लालसा ने अकर्मण्यता को पोषित किया है और हिंसात्मक प्रवृत्तियों को जन्म दिया है, जो विनाश का मूल है । प्राकृतिक विधान के अनुसार दूसरों के साथ किया हुआ कालान्तर में कई गुना होकर अपने प्रति हो जाता है । इस दृष्टि से बुराई के बदले बुराई करना अहितकर ही है । तो फिर सत्संग-योजना के अतिरिक्त और कोई उपाय क्रान्ति का नहीं है । यह जीवन का सत्य है ।

        मिली हुई स्वाधीनता का दुरूपयोग मत करो और न पराधीन रहो । यह महामंत्र ही व्यक्तिगत तथा सामाजिक क्रान्ति में उपयोगी सिद्ध होगा, ऐसा मेरा विश्वास तथा अनुभव है। जो सत्य जीवन में आ जाता है, वह अवश्य विभु हो जाता है, यह वैज्ञानिक सत्य है । व्यक्तिगत क्रान्ति से ही सामाजिक क्रान्ति होगी, इस वास्तविकता में अविचल रहना चाहिए; सफलता अवश्यम्भावी है । ॐ आनन्द !
सद्भावना सहित
शरणानन्द
- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से (Page No. 13-14)

Tuesday, 22 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 22 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)
  
दिव्य सन्देश 
श्रीवृन्दावन धाम
11-11-1973
प्राणप्यारे के प्रिय जनों !
        सविनय सेवा में निवेदन है कि जो सदैव होने से अभी और सभी का होने से अपना और सर्वत्र होने से अपने में मौजूद है, वही समर्थ है, वही सर्वेश्वर है और वही प्रेमियों का प्राणेश्वर है । उसी को साधन-तत्व अर्थात् गुरु-तत्व एवं साध्य-तत्व भी कहते हैं । वह गुरु-तत्व साध्य का ही प्रतिरूप है, साध्य की कृपामूर्ति ही गुरुमूर्ति है । यह प्रेमीजनों का अनुभव है।   

        साधक की गुरु-तत्व से ही अभिन्नता होती है, और गुरु-तत्व सर्वदा ही साध्य-तत्व से अभिन्न है । निज-ज्ञान गुरु के प्रकाश में अनुभव करो कि प्रतीति का प्रकाशक और उत्पत्ति का आधार जो है, वही अनादि, अनन्त, अविनाशी तत्व है । उसी से साधकों की जातीय एकता तथा नित्य सम्बन्ध है और वे ही सबके अपने हैं । यह वास्तविकता सद्गुरुवाणी के द्वारा ही स्वीकार की जाती है । स्वीकृति के अनुरूप प्रवृति स्वतः होने लगती है । अतः जिन भागवतजनों ने गुरुमुख द्वारा उसे, जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि के द्वारा देखा नहीं, अपितु गुरुवाणी के द्वारा स्वीकार किया है, वे धन्य हैं ।

        गुरु-तत्व के बिना अनन्त अगोचर प्राणेश्वर से आत्मीय सम्बन्ध हो ही नहीं सकता । इस दृष्टि से गुरु-तत्व ही एकमात्र श्रीहरि से मिलाने में हेतु है । ज्ञान का प्रकाश दृश्य से सम्बन्ध-विच्छेद कर सकता है और साधक के सर्व दुखों की निवृति हो सकती है; किन्तु नित नव-रस की उपलब्धि के लिए तो आस्था, श्रद्धा, विश्वाशपूर्वक गुरुवाणी द्वारा ही उसे स्वीकार किया जाता है, जो सभी का सब कुछ है । आत्मीय सम्बन्ध ही एकमात्र अखण्ड स्मृति तथा अगाध प्रियता की अभिव्यक्ति में हेतु है । यह रहस्य वे ही साधक जान पाते हैं, जिन्होंने सद्गुरुवाणी को अपनाया है । गुरु-तत्व की प्राप्ति होने पर ही भगवत्-तत्व की प्राप्ति होती है । यह भगवत्प्राप्त साधकों का अनुभव है ।

        निज-ज्ञान के आदर से साधक चिर-शान्ति, जीवन-मुक्ति प्राप्त कर सकता है । परन्तु भक्ति-तत्व की प्राप्ति में तो एकमात्र सद्गुरुवाणी में अविचल आस्था, श्रद्धा, विश्वास ही अचूक उपाय है । यह जीवन का सत्य है । हम सभी सद्गुरु जयन्ती महोत्सव मना रहे हैं । हमें अपने आपके सम्बन्ध में सजीवता लानी चाहिए । वह तभी सम्भव होगी, जब हम अपने में अपने परम प्रेमास्पद को स्वीकार कर निश्चिन्त तथा निर्भय हो जायें। सर्व-समर्थ प्रभु अपनी अहैतुकी कृपा से अपने विश्वासी जनों को अपनी आत्मीयता प्रदान करें, जिससे वे पावन प्रीति पाकर कृत-कृत्य हो जायें ! इसी सद्भावना के साथ,
अकिंचन
शरणानन्द
- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से (Page No. 11-12)     

Monday, 21 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 21 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण उत्पत्ति एकादशी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

"Swami Sharnanandji - in the words of Swami Ramsukhdasji"
(गत ब्लागसे आगेका)
        आपलोग भी आपसमें एक-दूसरे को सत्संगकी बातें सुनाया करो। इससे आपको भी लाभ होगा। सुनाने से ज्यादा लाभ होता है, यह हमने देखा है। शरणानन्दजी महाराज ने एक बात कही थी कि जो अच्छा सुनाता है, उसकी उम्र बढ़ जाती है ! लोग चाहते हैं कि इनसे बढिया बातें मिलती रहें । इसलिए सुननेवालोंकी सद्भावना के कारण वह जल्दी नहीं मरता । - 'बिन्दुमें सिन्धु' पुस्तक से (Page No. 85)

        एक आदमीने शरणानन्दजी महाराज से कहा कि जिनके पास ज्यादा धन है, वे आधा धन निर्धनको दे दें तो वे भी सुखी हो जायँ। शरणानन्दजी ने पूछा कि क्या तुम्हारा पक्का विचार है ? वह बोला कि हाँ, पक्का विचार है । शरणानन्दजी ने कहा कि मेरी आँखें नहीं है, तुम्हारे पास दो आँखें हैं तो एक आँख मेरेको दे दो। एक आँख से तुम्हारा भी काम चल जाएगा और मेरा भी। यह सुनते ही वह भाग गया, ठहरा नहीं ! कारण यह है कि लोग भीतरमें दूसरेका धन देखकर जलते हैं, पर बाहरसे निर्धनोंके हितकी कोरी बात बनाते हैं । इसलिए भगवान् के समान दूसरे का हित चाहनेवाला कोई नहीं है । - 'बिन्दुमें सिन्धु' पुस्तक से (Page No. 131)

        शरणानन्दजी से किसी ने पूछा कि महाराज, यहाँ कार्यक्रम पूरा करके आप कहाँ जाओगे ? वे बोले कि फुटबालको क्या पता कि खिलाड़ी उसे कहाँ लुढ़कायेगा ? जहाँ मालिक लुढ़कायेगा, वहीं जाएँगे । इस तरह शरणागत का भाव फुटबालकी तरह होता है। प्रिया और प्रियतमके खेलमें फुटबाल बन जाओ । दोनोंके चरणोंका स्पर्श हो और दोनों पीछे-पीछे भागें ! दोनों की जय-पराजय भी हमारे हाथमें ! हमें किसी की गरज नहीं और प्रिया-प्रियतम दोनोंको हमारी गरज ! - 'बिन्दुमें सिन्धु' पुस्तक से (Page No. 180)

         शरणानन्दजी की पुस्तकों में गीताजी की असली-असली गहरी बातें आती हैं । इतने जानकार होने पर भी उनमें अपनी जानकारी का अभिमान कभी आया ही नहीं ! उनकी मान्यता थी कि सिद्धान्त भगवान् का होता है, पर व्यक्ति अपना मानकर उसको अशुद्ध कर देता है । वे कहते थे कि संसार की कोई वस्तु व्यक्तिगत है ही नहीं । उन्होंने ऐसी बारीक-बारीक बढिया बातें बतायीं हैं, जो पहलेवाली बातों से भी विशेष हैं और उनसे आदमीमें बहुत जल्दी परिवर्तन होता है । - 'बिन्दुमें सिन्धु' पुस्तक से (Page No. 213)  

- (शेष आगेके ब्लागमें)- "बिन्दुमें सिन्धु" पुस्तक प्राप्ति स्थान (गीता प्रकाशन, गोरखपुर, Mobile : 09389593845, 07668312429) Email: radhagovind10@gmail.com
To get this book free in mail, please write to- feedback@swamisharnanandji.org

Sunday, 20 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 20 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०६८, रविवार)

"Swami Sharnanandji - in the words of Swami Ramsukhdasji"
(गत ब्लागसे आगेका) 
        श्रीशरणानन्दजी महाराज ने कहा कि जो हमारे बिना रह सकता है, उसके बिना हम भी मौज से रह सकते हैं। - 'सीमा के भीतर असीम प्रकाश' पुस्तक से (Page No. 34)

        मेरा भगवान में प्रेम हो जाय। इस एक बात में सबकुछ आ जाएगा। इसमें पुरुषार्थ इतना ही है कि इस बात को भूलें नहीं, केवल याद रखें । ऐसा करोगे तो मैं अपने पर आपकी बड़ी कृपा मानूँगा, एहसान मानूँगा। केवल याद रखना है, इतनी ही बात है। ऊँची-से-ऊँची सिद्धि इससे हो जाएगी । सदा के लिए दुःख मिट जाएगा। कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग - ये तीनों योग सिद्ध हो जाएँगे । केवल अपनी आवश्यकता को याद रखें, भूलें नहीं। यह बात मामूली नहीं है । मुझे किसी ग्रन्थ में यह बात मिली नहीं । स्पष्टरूप से केवल एक जगह सन्तों की (श्रीशरणानन्दजी महाराज) की वाणी में मिली है । शास्त्रों की बात की अपेक्षा अनुभवी सन्तों की बात श्रेष्ठ है । - 'सीमा के भीतर असीम प्रकाश' पुस्तक से (Page No. 85)

        अहम् (मैंपन) के साथ जो जानना होता है, उसमें अभिमान होता है; परन्तु अहम् के बिना जो जानना होता है, उसमें अभिमान नहीं होता । इसे श्रीशरणानन्दजी महाराज ने 'अभिमानशून्य अहम्' कहा है, जो व्यवहार मात्र के लिए होता है । - 'सीमा के भीतर असीम प्रकाश' पुस्तक से (Page No. 132)

        शरणानन्दजी से किसी ने पूछा कि आपका गुरु कौन है ? वे बोले कि जो मेरे से ज्यादा जानता है, वह मेरा गुरु है । फिर पूछा कि आपका चेला कौन है ? जो मेरे से कम जानता है वह मेरा चेला है। - 'सीमा के भीतर असीम प्रकाश' पुस्तक से (Page No. 139)

        " ‘दु:ख का प्रभाव’ एक पुस्तक है शरणानन्दजी की, पढ़ो उसको। शरणानन्दजी की बातें जल्दी समझ में नहीं आतीं। बड़ी विचित्र बातें हैं। उन्होंने कहा है कि मैं एक क्रान्तिकारी संन्यासी हूँ। जितने साधन बताये हैं, सबमें क्रान्ति कर दी, एकदम! ऐसी विचित्र बातें बतायी हैं जो आदमी के कान खुल जायँ, आँख खुल जायँ, होश आ जायँ। - स्वामी श्रीरामसुखदासजी "

" Listen This Discourse In The Voice Of Swami Shri Ramsukhdasji "

- (शेष आगेके ब्लागमें)- "सीमा के भीतर असीम प्रकाश" पुस्तक प्राप्ति स्थान (गीता प्रकाशन, गोरखपुर, Mobile : 09389593845, 07668312429)
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Saturday, 19 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 19 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

"Swami Sharnanandji - in the words of Swami Ramsukhdasji"

        श्रीशरणानन्दजी महाराज का मार्मिक वचन है कि 'किसी को दुःख देकर जो सुख लेते हैं, वह परिणाम में अनन्त दुःख देता है और किसी को सुख देकर जो दुःख लेते हैं, वह परिणाम में महान आनन्द देता है।' - 'सीमा के भीतर असीम प्रकाश' पुस्तक से (Page No. 76)

        सगुण और निर्गुण दोनों को ठीक तरह से जाननेवाले बहुत कम हैं। दोनों से उपर जाननेवाले बहुत कम महात्मा हुए हैं । शरणानन्दजी महाराज ऐसे महात्मा थे । परन्तु उनके बात को हरेक ठीक तरह से पकड़ नहीं पाता । - 'सीमा के भीतर असीम प्रकाश' पुस्तक से (Page No. 15)

        (श्रीशरणानन्दजी महाराज) कहते हैं कि 'मैंने चेला बनाना शुरू किया; परन्तु चेलों की यह आदत है कि गुरूजी को कसकर पकड़ लेते हैं, भगवान् को नहीं पकड़ते । तो मैंने चेला बनाना छोड़ दिया। - 'सीमा के भीतर असीम प्रकाश' पुस्तक से (Page No. 27)

        "शरणानन्दजी महात्मा क्या थे महाराज ! मेरे मनसे अगर आप पूछो तो नये दार्शनिक थे ! जैसे योग है, सांख्य है, पूर्व मीमांसा है, उत्तर मीमांसा है, न्याय है, छ: दर्शन है। छ: दर्शनोंसे निराला दर्शन है उनका। इतना किसने समझा है? किसने ख्याल किया है? बताओ । मैं ये बात बता सकता हूँ आपको । दार्शनिक, नये दार्शनिक ! परन्तु किसका विश्वास है? ज्ञानयोगमें, कर्मयोगमें, भक्तियोगमें विलक्षण बातें बतायी उन्होंने; उनकी बातें अकाट्य है; कोई खण्डन नहीं कर सकता उनकी बातोंका । आपके शास्त्र आपसमें खण्डन करते हैं एक-दूसरेका, मगर उनकी बातों का खण्डन करें कोई ! और प्रमाण देते नहीं हैं, किसी शास्त्र का, किसी पुस्तक का कोई प्रमाण नहीं । उनसे कहा था कि प्रमाण क्यों नहीं देते ? उन्होंने कहा कि जिसे संदेह हो वे प्रमाण दें, मुझे संदेह ही नहीं तो प्रमाण क्यों दें? प्रमाण कि क्या आवश्यकता है? उस संत को कितना आदर दिया हमलोगोंने? -स्वामी श्रीरामसुखदासजी "     
                 

        "शरणानन्दजी महाराज ने अपने को बड़ा क्रान्तिकारी संन्यासी बताया है। इन्होंने ऐसी बारीक-बारीक बढ़िया बातें बतायी हैं, जिसमें पहले वाली बातें उनसे विशेष बातें बतायी हैं। शरणानन्दजी की बातों से बहुत जल्दी परिवर्तन होता है और सबके सिद्धान्त से अगाड़ी हो, ऐसी बातें निकाल के गये हैं। उसमें भी ये बात बतायी हैं, कि सबसे श्रेष्ठ आदमी कौन है? जो हरि का आश्रय लेता है और विश्राम करता है, दो बातें बतायी हैं। --स्वामी श्रीरामसुखदासजी"


- (शेष आगेके ब्लागमें) - "सीमा के भीतर असीम प्रकाश" पुस्तक प्राप्ति स्थान (गीता प्रकाशन, गोरखपुर, Mobile: 09389593845, 07668312429)
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Friday, 18 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 18 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त उद्बोधन

45.    जो अपने में नहीं है, वह कभी भी अपने को नहीं चाहिए - यही वास्तविक त्याग है। इसको अपनाये बिना चिर-शान्ति, जीवन-मुक्ति तथा परम प्रेम की प्राप्ति नहीं हो सकती ।

46.    निर्लोभता के बिना दरिद्रता का, निर्मोहता के बिना भय का, निष्कामता के बिना अशान्ति का और असंगता के बिना पराधीनता का नाश नहीं होता । यह दैवी विधान है ।

47.    देहाभिमान रहते हुए कभी भी कोई भी पराधीनता आदि विकारों से रहित नहीं हो सकता । इस दृष्टि से सुख, सुविधा, सम्मान की वासना का अन्त करना अनिवार्य है, जो एकमात्र सत्य को स्वीकार करने पर ही सम्भव है ।

48.    आंशिक साधना के आधार पर अपने को सन्तुष्ट करना बड़ी ही भयंकर असाधना है । इससे सजग साधक को बड़ी ही सावधानीपूर्वक अपने को बचाना चाहिए । यह तभी सम्भव होगा जब साधक को आंशिक असाधना भी असह्य हो जाय । उसके लिए आंशिक साधना को साधना नहीं मानना चाहिए ।

49.    असाधन प्राकृतिक नहीं है । मानव अपनी ही भूल से असत् के संग को अपनाकर असाधन को जन्म देता है । जिसे मानव ने अपनी भूल से उत्पन्न किया है, उसका नाश भूल-रहित होने पर ही होगा । इस दृष्टि से भूल-रहित होने में ही मानव का पुरुषार्थ है। भूल-रहित होने के लिए अपनी भूल का अनुभव करना अत्यन्त आवश्यक है । अपनी भूल का अनुभव तभी होगा, जब आंशिक साधना को अपनी साधना स्वीकार न किया जाय, अपितु आंशिक असाधन को भूल मान लिया जाय । 

- ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page No. 24-26) [For details, please read the book]

Thursday, 17 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 17 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त उद्बोधन

39.    मेरा कुछ नहीं है, यह जानने की बात है और बुराई रहित होना, यह धर्म है, धारण करने की बात है । तो धर्म को धारण करो, भूल रहित हो जाओ और परमात्मा को मान लो। आपका जीवन कल्याणमय हो जाएगा ।

40.    भगवान् की दृष्टि से हम कभी ओझल नहीं हैं, उनकी सत्ता से हम कभी बाहर नहीं हैं । हम भगवान् की महिमा स्वीकार नहीं करते, उनके अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते, तो उससे भगवान् हमको दूर मालूम होते हैं ।

41.    भगवान् के अस्तित्व को स्वीकार करना ही तो आस्तिकता है और महत्व को स्वीकार करना ही भगवान् की स्तुति है और भगवान् के सम्बन्ध को स्वीकार करना ही उपासना है।

42.    भगवान् के अस्तित्व को, महत्व को और सम्बन्ध को स्वीकार करना अपना काम है और उस स्वीकृति को सजीव कर देना, यह प्रभु का काम है । जब हम अपना काम ठीक कर देते हैं तो प्रभु का काम ठीक होता रहता है, इसमें कमी होती नहीं है।

43.     साधक के जीवन में असफलता के लिए कोई स्थान ही नहीं है - इस महावाक्य में अविचल आस्था करते ही सफलता की उत्कृष्ट लालसा तीव्र होती है, जो समस्त कामनाओं को भस्मीभूत कर साधक को साध्य से अभिन्न कर देती है । यह सजग साधकों का अनुभव है ।

44.    अपने परम प्रेमास्पद सदैव अपने ही में हैं । उनमें अपनी अविचल आस्था रहनी चाहिए । प्रेमास्पद के अस्तित्व तथा महत्व को स्वीकार कर उनसे आत्मीय सम्बन्ध अत्यन्त आवश्यक है । आत्मीय सम्बन्ध से ही साधक में अखण्ड स्मृति तथा अगाध प्रियता की अभिव्यक्ति होती है ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page No. 19-24) [For details, please read the book]

Wednesday, 16 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 16 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त उद्बोधन

31.    जगत् की उदारता, प्रभु की कृपालुता और सत्पुरुषों की सद्भावना - ये प्रत्येक साधक के साथ सदैव रहती हैं ।

32.    एकान्त का पूरा लाभ तब होता है जब हमारा सम्बन्ध एक ही से रह जाये । अनेक सम्बन्ध लेकर एकान्त में जाते हैं तो उतना लाभ नहीं होता, जितना होना चाहिए । हमारे सम्बन्ध पहले बदलने चाहिए । एक से रहे, अनेक से नहीं ।

33.    संसार परमात्मा की प्राप्ति में बाधक नहीं है, बल्कि सहायक है । उसका जो हम सम्बन्ध स्वीकार करते हैं वही बाधक है।

34.    परमात्मा कहाँ है, कैसा है, क्या है - इसके पीछे न पड़ते हुए 'परमात्मा' है, यह मान लेना चाहिए । इससे बहुत लाभ होता है ।

35.    अपनी भूल को जान लेने से भी बड़ा लाभ होता है । क्योंकि भूल को जानने से वेदना होती है और वेदना से भूल नाश होती है और भूल रहित होने से अपना हित होता है ।

36.    मौन का अर्थ खाली चुप होना नहीं है, बल्कि न सोचना भी है, न देखना भी है अपनी ओर से । मुझे जो चाहिए सो तो मुझमें है, फिर इंद्रियों की क्या अपेक्षा ?

37.    मौन के पीछे एक दर्शन है कि हमको जो चाहिए वह अपने में है, अपना है और अभी है । यही सर्वश्रेष्ठ परमात्मवाद है ।

38.    भगवान की महिमा का कोई वारापार नहीं है । पसन्द भर करना हमारा काम है; बाकी तो भगवान की अहैतुकी कृपा सारा काम स्वतः कर देती है ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page No. 17-19) [For details, please read the book]

Tuesday, 15 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 15 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त उद्बोधन

25.    जबतक तुम बुरे नहीं होते, बुराई नहीं पैदा होती। मन में कोई विकृति नहीं है। ........... अपनी खराबी ठीक करो, मन ठीक हो जाएगा। तुम किसी को बुरा मत समझो, मन में बुरी बात कभी नहीं आएगी । तुम किसी का बुरा मत चाहो, मन में बुरी बात कभी नहीं आएगी । तुम किसी के साथ बुराई मत करो, मन में बुरी बात कभी नहीं आएगी । हमारी भूल मन में दिखती है । भूल हम करते हैं और नाम मन का रख देते हैं। बुराई करनेवाला खुद दुःखी होता है और दूसरों को भी दुःखी करता है ।

26.    अपने को बुरा मानोगे, तो बुराई करोगे । अपने को भला मानोगे, तो भलाई करोगे । और भला-बुरा कुछ नहीं मानोगे, तो परमात्मा में रहोगे ।

27.    मनुष्य सर्वांश में बुरा नहीं हो सकता, पर सर्वांश में भला हो सकता है ।

28.    जिसके करने की सामर्थ्य प्राप्त हो, जिसमें किसी का अहित न हो, जिसके बिना करे नहीं रह सकते हो और जिसका सम्बन्ध वर्तमान से हो - ऐसा काम ही जरूरी होता है ।

29.    संसार कभी आपसे नहीं कहता कि मुझे पसन्द करो, तुम्हीं पसन्द करते हो । संसार की किसी वस्तु ने कभी कहा है कि मैं तुम्हारी हूँ ? तुम्हारे मकान ने कहा हो, तुम्हारी जेब के पैसों ने कहा हो, तुम्हारी इंद्रियों ने कहा हो । तुम्हारे शरीर से लेकर संसार की जितनी भी चीजें हैं, उनमें से किसने कहा कि मैं तुम्हारी हूँ ? तुम बिना वजह 'अपना-अपना' गीत गाते हो । कहते हो 'मेरा मन', 'मेरा हाथ' आदि ।

30.    जानी हुई बुराई करो मत और जो बुराई कर चुके हो, उसे दोहराओ मत । तो आगे बढ़ जाओगे ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page No. 15-17) [For details, please read the book]

Monday, 14 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 14 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण गणेश-चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त उद्बोधन

18.    सेवा, त्याग और प्रेम तीनों इकट्ठे हो गए, भजन हो गया । भजन में सेवा भी है, त्याग भी है और प्रेम भी है।

19.    भगवान को जबतक अपना नहीं मानोगो तबतक भगवान प्यारा लगेगा नहीं और भगवान जबतक प्यारा लगेगा नहीं, तबतक उसकी याद आयेगी नहीं और जबतक याद नहीं आयेगी, तबतक भजन होगा नहीं ।

20.    प्रभु की महिमा स्वीकार करो, स्तुति हो गयी । प्रभु से सम्बन्ध स्वीकार करो, उपासना हो गयी । प्रभु के प्रेम की आवश्यकता अनुभव करो, प्रार्थना हो गयी ।

21.    मनुष्य में तीन बातें होती हैं - भोग की वृति होती है, जिज्ञासा होती है और भगवद्-प्राप्ति की लालसा होती है । तो भोग की वृति का त्याग कर दो, जिज्ञासा पूरी हो जाएगी और भगवद्-प्राप्ति की लालसा उदय हो जाएगी ।

22.    हमें देखना चाहिए कि हमारा सम्बन्ध हमारी ओर से किसके साथ है ? परमात्मा के साथ है या जगत् के साथ है; अच्छाई के साथ है या बुराई के साथ है ? हमको क्या पसन्द आता है ? अगर हमको परमात्मा का सम्बन्ध अच्छा लगता है, तो संसार का सम्बन्ध अपने आप ही टूट जाएगा । अगर संसार का सम्बन्ध हमने तोड़ दिया है, तो परमात्मा से सम्बन्ध अपने आप हो जाएगा । तो आपके और परमात्मा के बीच संसार पर्दा नहीं है, उससे सम्बन्ध पर्दा है ।

23.    प्रेम करने का तरीका आज तक संसार में कोई बतला नहीं सका, और निकला भी नहीं है । तरीके से प्रेम नहीं हुआ करता, क्योंकि प्रेम का तरीका होता, तो जो काम तरीके से हो सकता है वह मशीन से भी हो सकता है । तब तो आज के वैज्ञानिक युग में प्रेम प्राप्त करने की मशीन भी बन जातीं । तो प्रेम करने का कोई तरीका नहीं है, पर प्रेम करना सबको आता है । ......... परमात्मा अपना है, उसे अपना बनालें, तो वह प्यारा लगता है ।

24.    आप सुनना और सीखना बंद करें और जानना और मानना प्रारम्भ करें, तो काम बन जाएगा । जानने के स्थान पर - "मेरा कुछ नहीं है" - इसके सिवाय और कुछ नहीं जानना है । और मानने के स्थान पर सिवाय परमात्मा के और कोई मानने में आता नहीं है ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page No. 13-15) [For details, please read the book]

Sunday, 13 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 13 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०६८, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त उद्बोधन

9.    सही काम करने से मनुष्य काम-रहित हो जाता है । काम-रहित होने से योग की प्राप्ति होती है । योग की पूर्णता में बोध और प्रेम है ।

10.    जो नहीं कर सकते हो, उसे करने की सोचो मत और जो नहीं करना चाहिए उसे करो मत । जो कर सकते हो, उसे जमा मत रखो, कर डालो । उसके अन्त में आपको योग की प्राप्ति हो जाएगी ।

11.    भोग जब आप करते हैं, तो भोगे हुए का प्रभाव मन पर अंकित हो जाता है, उसका संस्कार जमता है और जब आप शान्त होते हैं, तब वही प्रकट होता है । वह प्रकट होता है नाश होने के लिए, वह नया कर्म नहीं है । आपके भोजन कर लेने के बाद जैसे आपका भोजन बिना जाने और बिना कुछ किए पचता है । तो एक होता है 'करना' और एक होता है 'होना' । ........ तो होने वाली बात को कर्म मत मानो, वह कर्म नहीं है । अगर उससे असहयोग कर लोगे, तो उसका प्रभाव अपने आप नाश हो जाएगा।

12.    संसार से सम्बन्ध है सेवा करने के लिए और परमात्मा से सम्बन्ध है प्रेम करने के लिए । न संसार से कुछ चाहिए, न परमात्मा से कुछ चाहिए ।

13.    संकल्प तो भुक्त इच्छाओं का प्रभाव है और जो पहले भोग कर चुके हैं, उसी के प्रभाव से उठता है ।

14.    संकल्पपूर्ति का सुख ही नवीन संकल्प को जन्म देता है । यदि हम संकल्पपूर्ति का सुख पसन्द करते रहेंगे, तो एक के बाद एक नवीन संकल्प उत्पन्न होता ही रहेगा और अभाव-ही-अभाव पल्ले पड़ेगा ।

15.    संकल्पपूर्ति का सुख मत भोगो व संकल्प-निवृति की शान्ति में रमण मत करो । बस, तब जीवन-मुक्ति प्राप्ति हो जाएगी । 

16.    ज्ञान और सामर्थ्य के अनुसार जो संकल्प उठे, उसे पूरा करके खत्म कर दो । संकल्प वह पूरा करना है जिसमें दूसरों का हित है । उसी को कर्तव्य कहते हैं ।

17.    जो संकल्प कभी पूरा न हो, बार-बार उठे वह ज्ञान विरोधी है, सामर्थ्य विरोधी है । अतः उसका त्याग कर दो । इस प्रकार आप निर्विकल्प हो जाएँगे ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page No. 11-13) [For details, please read the book]

Saturday, 12 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 12 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

सन्त उद्बोधन

1.    शरणागत विश्वासी साधक अपने सभी आत्मीयजनों को समर्थ के हाथों समर्पित करके, निश्चिन्त तथा निर्भय हो जाता है ।

2.    किसी भी विश्वासी शरणागत साधक को कभी भी अधीर नहीं होना चाहिए, कारण कि वह सनाथ है, अनाथ नहीं ।

3.    कुछ नहीं चाहने से ही मोक्ष मिलता है । चाहना ही बन्धन होता है । अगर मालूम होता है कि मेरा कुछ है, मुझे कुछ चाहिए, तो बस बँध गए । अगर तुम्हें यह अनुभव हो जाय कि मेरा कुछ नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिए, बस मुक्त हो गए ।

4.    जो होती है, उसको मुक्ति थोड़े ही कहते हैं, जो है, उसे मुक्ति कहते हैं । बन्धन बनाने की सामर्थ्य आप ही में है और मुक्त होने की सामर्थ्य भी आप में ही है ।

5.    परमात्मा को जानना चाहिए या मानना चाहिए?......परमात्मा माना जाता है, जाना नहीं जाता । माना हुआ वह परमात्मा माना हुआ नहीं रहता, प्राप्त हो जाता है ।

6.    श्रम और विश्राम जीवन के दो पहलू हैं । श्रम है संसार के लिए और विश्राम है अपने लिए ।

7.    जब कोई काम करने चलो, तो यह मानकर मत चलो कि मुझे क्या लाभ होगा ? बल्कि यह सोचकर चलो कि इससे परिवार को क्या लाभ होगा, संसार को क्या लाभ होगा । बल का जब उपयोग करो तो इस बात को सामने रखो कि किसी दूसरे को उससे हानि तो नहीं होती । यदि हानि है तो वह नहीं करूँगा । तो दूसरों के हित के लिए काम करो, उसको कहते हैं श्रम और अपने लिए विश्राम करो । विश्राम में अमर जीवन है, विश्राम में स्वाधीन जीवन है, विश्राम में सरस जीवन है ।

8.    विश्राम का अर्थ होता है - काम रहित होना । विश्राम सहज है, स्वाभाविक है । सभी के लिए समान रूप से सम्भव है ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page no. 7-11)

Friday, 11 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 11 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

44.    संसार की सहायता से जबतक जीवन मालूम होता है, तबतक तो मृत्यु के ही क्षेत्र में रहते हैं । शरीर के रहने का नाम जीवन नहीं है । ........... शरीर से सम्बन्ध टूटने के बाद जीवन की प्राप्ति होती है ।

45.    जिसको आप जानना और समझना कहते हैं, वह तो सीखना है । आपने सीखा है, सुना है । न आपने जाना है, न समझा है । ........... जानने का अर्थ यह है कि जब आप ठीक-ठीक जान लें कि सचमुच इतने बड़े संसार में मेरा कुछ है ही नहीं और मुझे कुछ नहीं चाहिए ।

46.    जो साधक अपने ज्ञान का आदर नहीं करता, वह गुरु और ग्रन्थ के ज्ञान का भी आदर नहीं कर सकता । जैसे, जो नेत्र के प्रकाश का उपयोग नहीं करता, वह सूर्य के प्रकाश का भी उपयोग नहीं कर पाता ।

47.    कर्म ज्ञान का साधन नहीं होता, बल्कि भोग का दाता होता है।

48.    एक शरीर को लेकर कुटिया के अन्दर बंद कर दिया और हम त्यागी हो गए । तो मैं कहूँगा कि ऐसे तो तुम्हारे बाप भी त्यागी नहीं हो सकते । यदि पूछो, क्यों त्यागी नहीं हो सकते ? तो कहना होगा कि आपने अपना {अहम् का} तो त्याग किया नहीं । भाई मेरे, अगर त्याग करना हो तो अपना त्याग करो। और प्रेम करना हो तो सभी को प्रेम करो । और यदि अपने-आप का त्याग नहीं कर सकते तो आप संसार का कभी त्याग नहीं कर सकते ।

49.    केवल गृहत्याग करने एवं वस्त्र रंगनेमात्र से किसी को योग-बोध-प्रेम की प्राप्ति नहीं हो सकती । यह त्याग नहीं वरन् त्याग के भेष में अपने कर्तव्य से पलायन करना है ।  

- सन्त हृदयोद्गार पुस्तक से ।

Thursday, 10 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 10 November 2011
(कर्तिक पूर्णिमा, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

37.    आज उपदेष्टा गुरु की लेशमात्र भी आवश्यकता नहीं है । आवश्यकता इस बात की है कि कोई ऐसा वीर पुरुष या वीर महिला हो, जो किसी उपदेश को स्वीकार कर सके ।

38.    दुनिया का बड़े-से-बड़ा गुरु, बड़े-से-बड़ा नेता, बड़े-से-बड़ा राष्ट्र जो काम नहीं कर सकता आपके साथ, अगर आप चाहें तो अपने साथ कर सकते हैं ।

39.    शास्त्रों में नेता या गुरु बनने को पतन का हेतु माना है। इससे यह सिद्ध होता है कि यह काम महापुरुषों के ही उपयुक्त है। साधक को इस बखेड़े में कभी नहीं पड़ना चाहिए ।

40.    वास्तविक गुणों का प्रादुर्भाव होने पर उनका भास नहीं होता । अतः जबतक गुणों का भास हो, तबतक समझना चाहिए कि गुणों के स्वरूप में कोई दोष है ।

41.    जब प्राणी अपनी प्रसन्नता किसी और पर निर्भर कर लेता है, तब उसका चित्त अशुद्ध हो जाता है, जिसके होते ही अनेक दोषों की उत्पत्ति अपने-आप होने लगती है ।

42.    यह सभी जानते हैं कि गहरी नींद में प्राणी प्रिय-से-प्रिय वस्तु और व्यक्ति का त्याग स्वभाव से ही अपना लेता है और उस अवस्था में किसी प्रकार के दुःख का अनुभव नहीं करता, अपितु जाग्रत-अवस्था में यही कहता है कि बड़े सुख से सोया। प्राकृतिक नियम के अनुसार कोई भी स्मृति अनुभूति के बिना नहीं हो सकती । गहरी नींद में कोई दुःख नहीं था, यह अनुभूति क्या साधक को वस्तु, व्यक्ति आदि से अतीत के जीवन की प्रेरणा नहीं देती ? अर्थात् अवश्य देती है । ..........गहरी नींद के समान स्थिति यदि जागृत में प्राप्त कर ली जाय तो यह सन्देह निर्मूल हो जाएगा और यह स्पष्ट बोध हो जाएगा कि वस्तु, व्यक्ति आदि के बिना भी जीवन है और उस जीवन में किसी प्रकार का अभाव नहीं है ।

43.    साधक को विश्वास रखना चाहिए कि जीवन स्वयं अपनी रक्षा करता है । यदि जीवन शेष है तो जीवन के साधन स्वयं प्राप्त हो जायेंगे ।  

(शेष आगेके ब्लागमें) - सन्त हृदयोद्गार पुस्तक से ।

Wednesday, 9 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 09 November 2011
(कर्तिक शुक्ल वैकुण्ठ चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

31.    उनकी अहैतुकी कृपा आवश्यक वस्तु बिना माँगे ही दे देती है और अनावश्यक माँगने पर भी नहीं देती । इस दृष्टि से कुछ भी माँगना अपनी बेसमझी का परिचय देना है और उनके मंगलमय विधान का अनादर करना है।

32.    अगर इन्द्रियाँ संसार की ओर जाती हैं तो अपराध क्या है उनका ? संसार की जाति की ही हैं । लेकिन आप क्यों संसार को पसन्द करते हो जी, यह बताओ ? आप तो भगवान की जाति के हैं।

33.    अपने बल का अभिमान छोड़कर साधक जब यह विकल्प-रहित दृढ़ विश्वास कर लेता है कि मुझ पर भगवान की कृपा अवश्य होगी, मैं उनका कृपापात्र हूँ, उसी समय उस पर भगवान की कृपा अवश्य हो जाती है । इसमें कोई सन्देह नहीं है।

34.    आप सच मानिए, उस अनन्त की अहैतुकी कृपा निरन्तर योग की, ज्ञान की, प्रेम की वर्षा कर रही है । परन्तु दुःख की बात तो यह है कि हम उस कृपा के द्वारा जो वर्षा हो रही है, उसका उपयोग नहीं कर पाते । आप कहें, कैसे उपयोग नहीं कर पाते ? क्या हम थोड़ी-थोड़ी देर के लिए शान्त होते हैं ? यदि शान्त हुए होते तो आपको स्वयं अनुभव होता कि प्रभु की कृपाशक्ति योग दे रही है, प्रेम दे रही है, ज्ञान दे रही है और हम उससे तद्रूप होकर कृतकृत्य हो रहे हैं ।

35.    भूतकाल के दोषों के आधार पर वर्तमान की निर्दोषता में दोष का आरोप करना अपने प्रति अन्याय है । इसका अर्थ यह नहीं है कि भूतकाल की भूल का परिणाम परिस्थिति के रूप में अपने सामने नहीं आयेगा, अवश्य आयेगा; किन्तु भूतकाल के दोष के आधार पर वर्तमान की निर्दोषता में दोष का आरोप करना दोषयुक्त प्रवृति को जन्म देना है ।

36.    पूजा-प्रार्थना सब परमात्मा के साथ करनेवाली बात है । गुरु परमात्मा का बाप हो सकता है, परमात्मा नहीं । हाँ, गुरुवाक्य ब्रह्मवाक्य हो सकता है । गुरु श्रद्धास्पद हो सकता है, प्रेमास्पद नहीं । व्यक्ति को अगर परमात्मा मानना है तो सबको मानो। गुरु साधनरूप हो सकता है, साध्यरूप नहीं ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - सन्त हृदयोद्गार पुस्तक से ।

Tuesday, 8 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 08 November 2011
(कर्तिक शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

22.    कामना ही क्रोध में हेतु है, चाहे शुभ कामना हो अथवा अशुभ। यद्यपि अशुभ से शुभ श्रेष्ठ है, परन्तु शुभ कामना भी दुःख का कारण है ।

23.    भगवान इच्छा पूरी नहीं करते, वे तो भक्त को इच्छा-रहित करते हैं ।

24.    इच्छाओं के रहते हुए प्राण चले जायँ तो 'मृत्यु' हो गयी और प्राण रहते हुए इच्छाएँ चली जायँ तो 'मुक्ति' हो गयी ।

25.    जब अपने मन की इच्छा के विपरीत हो, तब साधक को समझना चाहिए कि अब प्रभु अपने मन की बात पूरी कर रहें हैं ।

26.    यदि भगवान के पास कामना लेकर जायँगें तो भगवान संसार बन जायँगे और यदि संसार के पास निष्काम होकर जायँगे तो संसार भी भगवान बन जाएगा । अतः भगवान के पास उनसे प्रेम करने के लिए जायँ और संसार के पास सेवा करने के लिए, और बदले में भगवान और संसार दोनों से कुछ न चाहें तो दोनों से ही प्रेम मिलेगा ।

27.    परमात्मा से यदि कुछ भी माँगेंगे तो आपका सम्बन्ध परमात्मा से तो रहेगा नहीं, जो हम माँगेंगे, उससे हो जाएगा ।

28.    अपने को जो चाहिए, वह अपने में है ।

29.    अगर आप यह मानते हैं कि सत्य की जिज्ञासा के साथ-साथ असत् की कामना भी है, तो कहना पड़ेगा कि सत्य की जिज्ञासा के नाम पर किसी असत् का ही भोग करना चाहते हैं ।

30.    हमने अपने में जो चाह पैदा कर ली है, यही हमारे और प्रभु के बीच में मोटा परदा कहो, चाहे गहरी खाई कहो, बन गयी है ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - सन्त हृदयोद्गार पुस्तक से ।

Monday, 7 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 07 November 2011
(कर्तिक शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

15.    सबसे बड़ा उपदेशक कौन है ? जो जीवन से उपदेश करता है । वह सबसे बड़ा वक्ता है, सबसे बड़ा पण्डित है, सबसे बड़ा सुधारवादी है । और सबसे घटिया कौन है ? जो परचर्चा करके उपदेश करता है । कभी व्यक्तियों की चर्चा, कभी परिस्थितियों की चर्चा ।

16.    कर्तव्यनिष्ठ होने से ही कर्तव्यपरायणता फैलती है, समझाने से नहीं, उपदेश करने से नहीं, शासन करने से नहीं, भय देने से नहीं, प्रलोभन देने से नहीं ।

17.    जहाँ तक संसार की सत्यता और सुन्दरता का भास है, वहाँ तक काम-ही-काम है ।

18.     जब साधक प्राप्त विवेक के द्वारा शरीर के वास्तविक स्वरूप का दर्शन कर लेता है, तब शरीर की सत्यता और सुन्दरता मिट जाती है । उसके मिटते ही काम का अन्त हो जाता है ।

19.    जो कुछ नहीं चाहता, वही 'प्रेम' कर सकता है और जो कुछ नहीं चाहता, वही 'मुक्त' हो सकता है ।

20.    मेरा अपना अब तक का अनुभव है कि जो हम चाहते हैं, वह न हो, इसी में हमारा हित है । हमने तो जब तक अपने मन की बात मानी है, अपने मन की बात की है, तो सिवाय पतन के, सिवाय अवनति के हमें तो कुछ परिणाम में मिला नहीं । ........मैं आपके सामने अपनी अनुभूति निवेदन कर रहा हूँ, और इससे लाभ उठाना चाहते हैं तो अपनी चाही मत करो । प्रभु की चाही होने दो । प्रभु वही चाहते हैं, जो अपने-आप हो रहा है ।

21.    किसी भी प्रकार की कामना न रखनेवाला 'राजाओं का राजा'; जो शक्ति प्राप्त है उससे कुछ कम कामना रखनेवाला 'धनी'; शक्ति के समान कामना रखनेवाला 'मजदूर'; शक्ति से अधिक कामना रखनेवाला 'कंगाल' है।

(शेष आगेके ब्लागमें) - सन्त हृदयोद्गार पुस्तक से ।

Sunday, 6 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 06 November 2011
(कर्तिक शुक्ल हरि प्रबोधिनी एकादशी, वि.सं.-२०६८, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

7.    कुछ न करने से जीवन अपने लिए उपयोगी हो जाता है और सही करने से जीवन जगत् के लिए उपयोगी हो जाता है ।

8.    अपने लिए कुछ करना है - यह असत् का संग है ।

9.    यह मान लेना कि हम जब कुछ करेंगे, तभी कुछ मिलेगा, बिना किये कुछ नहीं मिलता है - इस धारणा में आस्था करना मानव को अविनाशी जीवन से विमुख करना है ।

10.    जो दिन-रात अपने अहम् के ही महत्व को बढ़ाता रहता है, दुनिया उसका मुँह देखना पसन्द नहीं करती ईमानदारी से ।

11.    'सबहिं नचावत राम गोसाईं'  - यह उस भक्त के हृदय की पुकार है कि जिसका अहंभाव मिट गया हो ।

12.    हमें अपने में से 'मैं सर्वहितैषी हूँ', 'मैं अचाह हूँ', अथवा 'मुझे अपने लिए संसार से कुछ नहीं चाहिए' - यह अहंभाव भी गला देना चाहिए यह तभी सम्भव होगा, जब सर्वहितकारी प्रवृति होने पर भी अपने में करने का अभिमान न हो और चाह-रहित होने पर भी 'मैं चाह-रहित हूँ' ऐसा भास न हो । कारण कि अहंभाव के रहते हुए वास्तव में कोई अचाह हो नहीं सकता; क्योंकि सेवा तथा त्याग का अभिमान भी किसी राग से कम नहीं है।

13.    अगर तुम दूसरों के लिए बोलते हो, दूसरों के लिए सुनते हो, दूसरों के लिए सोचते हो, दूसरों के लिए काम करते हो तो तुम्हारी भौतिक उन्नति होती चली जायगी । कोई बाधा नहीं डाल सकता । अगर तुम केवल अपने लिए सोचते हो तो दरिद्रता कभी नहीं जायगी ।

14.    मैं तो इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि हम सबका वर्तमान हम सबके विकास में हेतु है; चाहे दुःखमय है वर्तमान, चाहे सुखमय है।

(शेष आगेके ब्लागमें) - सन्त हृदयोद्गार पुस्तक से ।

Saturday, 5 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 05 November 2011
(कर्तिक शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

सन्त हृदयोद्गार

1.    अगर आप भगवान को मानते हैं, तो उस मान्यता का परिचय हमारे आपके जीवन से हो, केवल विचारों से नहीं । हमारा जीवन बता दे कि हम भगवान को मानते हैं ।

2.    बहुत से लोग हैं जो प्रभु को मानते हैं । बहुत से लोग हैं जो संसार की वास्तविकता को जानते हैं । महत्व की बात यह है कि उस जाने हुए का प्रभाव कितना है जीवन में; उस माने हुए का प्रभाव कितना है जीवन में ।

3.     भगवान का स्मरण करने से जीव का कल्याण होता है - यह बात भी हम अच्छी तरह जानते हैं, फिर भी मन भगवान में नहीं लगता, तो इससे बढ़कर और नास्तिकता क्या होगी ?

4.    वस्तुविशेष में भगवद्बुद्धि होना कोई कठिन बात नहीं है । पर यह अधूरी आस्तिकता है । पूरी आस्तिकता का तो अर्थ यह है कि भगवान से भिन्न कुछ है ही नहीं । अभी भी नहीं है, पहले भी नहीं था और आगे भी नहीं होगा ।

5.    गहराई से देखिए, किसी का होना कुछ अर्थ नहीं रखता, जबतक कि उससे अपना सम्बन्ध न हो, और किसी से भी सम्बन्ध उस समय तक नहीं होता, जबतक कि उसकी आवश्यकता न हो ।   

6.    अगर आपको उनके (संसार के रचयिता के) बिना अनुकूलता प्रिय है, तो वह उसी प्रकार की है कि एक सुन्दर कमरा सजा है और आप दोस्त के बिना हैं; एक सुन्दर स्त्री श्रृंगार करे और पति से वंचित रहे, या शरीर आत्मा-रहित हो । आस्तिकवाद का न होना जीवन में अकेले पड़े रहने के समान है।

(शेष आगेके ब्लागमें) - सन्त हृदयोद्गार पुस्तक से ।

Friday, 4 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 04 November 2011
(कर्तिक शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)

प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?

        प्रेमियों में प्रेम वे (संसार के रचयिता) ही हैं, ज्ञानियों में ज्ञान वे ही हैं, योगियों में योग वे ही हैं । सब कुछ वे ही हैं, और कुछ है नहीं । कोई और है नहीं, हो सकता नहीं, कभी होगा नहीं । वे ही वे हैं, वे ही वे हैं । तब उनका प्यारा कह उठता है कि तुम ही तुम हो, सब कुछ तू है, सब कुछ तेरा है, न मैं हूँ, न मेरा है; केवल तू है और तेरा है । यह प्रेमियों का सहज स्वभाव है । यह स्वभाव भी प्रेमियों को उन्हीं का दिया हुआ है । यह मानव के पुरुषार्थ से सिद्ध नहीं हुआ । पुरुषार्थियों में पुरुषार्थ करने की जो सामर्थ्य है, वह भी उन्हीं की दी हुई है ।

        वे स्वयं सामर्थ्यरूप हैं, वे ही विवेकरूप हैं और वे ही सत्तारूप हैं । सब कुछ उन्हीं का है और सब कुछ वे ही हैं । अतः हम सबको उनकी आत्मीयता चाहिए । हमारे और उनके बीच में आत्मीय सम्बन्ध है, जातीय सम्बन्ध तो है ही, नित्य सम्बन्ध तो है ही । हम सदैव उनको अपना मानते रहें और अपना जानते रहें । इससे भी अधिक ऐसा लगे कि वे ही अपने हैं, वे ही अपने हैं और कोई अपना नहीं हैं । तू मेरा है और मैं तेरा हूँ - यही सम्बन्ध अविनाशी है, अमर है । जब मैं शरीर बनता हूँ, तब प्यारे ! तुम विश्वरूप धारण करते हो, जब मैं अहं बनता हूँ, तब तुम परमतत्व बन जाते हो और जब मैं शरणागत हो जाता हूँ, तब तुम सर्वस्व हो जाते हो ।

        तुम्हारी सदा ही जय हो ! जय हो !! तुम्हारी शरणागति सभी को सम्भव हो, इसी सद्भावना के साथ ।।ॐ।। 

- संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)

Thursday, 3 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 03 November 2011
(कर्तिक शुक्ल गोपाष्टमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?

        उन्होंने (संसार के रचयिता ने) मानव पर कभी शासन नहीं किया । भला बताओ, क्या इन्द्र शासन के लिए कम है ? सुख-भोग के लिए अन्य प्राणी क्या कम हैं ? मानव का निर्माण उन्होंने न तो शासन करने के लिए किया और न भोग कराने के लिए किया । उन्होंने कहा कि तू स्वाधीन होकर, अमर होकर, अजर होकर, अविनाशी होकर एक बार कह दे कि हे प्यारे ! तुम मेरे हो । इसी उद्देश्य के लिए उस अनन्त ने मानव का निर्माण किया है ।

        आप कितने भाग्यशील हैं कि आपको मानव-जीवन मिला है ! आप मानव होने के नाते उन्हें अपना कह सकते हैं, उन्हें अपना मान सकते हैं, उनके होकर रह सकते हैं, उनके प्रेम की भूख जगा सकते हैं और बढा सकते हैं, उनकी महिमा गा सकते हैं, गवा सकते हैं, उनका चिन्तन कर सकते हैं, करा सकते हैं । इसलिए महानुभाव ! मानव और अनन्त का सदा से ही नित्य सम्बन्ध है, जातीय सम्बन्ध है और आत्मीय एकता है । हम इस महामन्त्र को कभी न भूलें । किस महामन्त्र को ? मैं सदैव तेरा हूँ, तेरी जाति का हूँ, मेरा-तेरा नित्य सम्बन्ध है, तू ही मेरा अपना है। इस महामन्त्र को हम कभी न भूलें । वे हमें कभी नहीं भूलते । वे बार-बार मानव को यही समझाते रहते हैं कि मैं तुझे प्यारा लगता रहूँ, तू मेरा होकर रह । मेरी नजर में तू-ही-तू और तेरी नजर में मैं-ही-मैं बना रहूँ ।

        आप सच मानिए, यह मानव-जीवन भोग-योनी नहीं है । यह जीवन प्रेम-योनी है । इस जीवन में ही मनुष्य को प्रेम की प्राप्ति होती है । और किसी जीवन में प्रेम की प्राप्ति नहीं होती । तो क्या आज हम उनके प्रेम की आवश्यकता अनुभव नहीं कर सकते, उनकी आत्मीयता को नहीं अपना सकते ? अवश्य अपना सकते हैं और उनके प्रेम की आवश्यकता अनुभव कर सकते हैं । यह सामर्थ्य उनकी ही दी हुई है, हमारी उपार्जित नहीं है । सच पूछिए तो दार्शनिकों को दर्शन उन्हींने दिया है, कलाकारों को कला उन्हींने दी है, लेखकों को लिखने की शक्ति उन्हींने दी है । बुद्धिमानों में बुद्धि का चमत्कार उन्हीं का दिया हुआ है, बलवानों में बल उन्होंने ही दिया है, सत्तावालों में सत्ता उन्हीं की दी हुई है।

(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)

Wednesday, 2 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 02 November 2011
(कर्तिक शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)

प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?

        हम आपको क्या बताएँ, वे (संसार के रचयिता) देखते हैं कि मनुष्य का कौन सा संकल्प ऐसा है जिसकी अपूर्ति से यह पीड़ित है ? उस संकल्प को अनायास ही वे पूरा कर देते हैं। जब वे यह देखते हैं कि संकल्पपूर्ति के सुख में यह मेरे महत्व को भूलने लगा है, तब वे करुणित होकर संकल्प-अपूर्ति की परिस्थिति बनाकर निःसंकल्प होने की प्रेरणा देते हैं, सामर्थ्य देते हैं । अन्त में निःसंकल्प भी कर देते हैं। जब वे यह देखते हैं कि निःसंकल्पता की शान्ति के आनन्द में विभोर हो गया और मुझे भूलने लगा है, यह अपने आप ही अपनी महिमा गाने लगा है, अपने आप में ही अपने को पाने लगा है । तब वे बड़ी भारी करुणा करके मुक्ति के आनन्द को भी, निःसंकल्पता के आनन्द को भी फीका-फीका कर देते हैं ।

        मैं सच कहता हूँ कि वे ऐसी लीला करने लगते हैं कि मनुष्य सोचने लगता है कि अरे, अभी तो कुछ मिला ही नहीं । फिर जब उनका शरणागत ही अधीर होता है, तब वे इस बात का प्रत्यक्ष अनुभव करा देते हैं कि भैया, तेरे लिए कुछ हुआ तो नहीं । यार ! तू वैसे ही सोच बैठा कि मैं योग्य लेखक हो गया, मैं वक्ता हो गया, मुझे गुरुपद मिल गया, मुझे तत्व-ज्ञान हो गया । तू अनेक छोटी-छोटी बातों में मेरे यार, मुझे क्यों भूल गया ? अरे भैया ! मैंने तो तेरा निर्माण इस लिए किया था कि तू मुझे सदैव अपना मानता रहेगा और मैं तुझे अपना समझता रहूँगा ।

        थोड़ी सी शान्ति के रस में, थोड़े से निजानन्द को पाकर क्या मुझे भूल गया ? अरे भैया ! तू मुझे भूल सकता है, पर मैं तुझे नहीं भूल सकता । मैं सच कहता हूँ कि यदि उन्हें हमारी याद न आई होती, तो हमें उनकी याद नहीं आती । उन्हें हमारी याद आती है, क्योंकि वे हमे अपना मानते हैं और जानते हैं । तभी हम उनसे यह कह पाते हैं कि मैं तेरा हूँ और तू मेरा है । आप सच मानिए, मानव का निर्माण इसी उद्देश्य के लिए था, मानव-जीवन इसीलिए मिला ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)

Tuesday, 1 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 01 November 2011
(कर्तिक शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)

प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?

        मैं आपको क्या बताऊँ ! मुझसे गुरुदेव ने कहा कि भैया, तू भजन किया कर । मैंने कहा कि भजन क्या होता है ? उन्होंने कहा कि राम-राम कहा कर । मैंने कहा कि मेरा तो राम-नाम में विश्वास ही नहीं है । वे गुरुदेव के रूप में प्रकट होकर प्रसन्न हुए, करुणित हुए । आप जानते हैं, कोई कहे कि हमें उनके नाम पर विश्वास नहीं है, तो कितना दुःख हो ? लेकिन उन्होंने उदारता का भेष धारण किया और कहा कि भैया ! कोई बात नहीं है । अगर तुमको राम-नाम में विश्वास नहीं है, तो कोई बात नहीं है । क्या तुमको यह भी विश्वास नहीं है कि वे हैं ? मैंने कहा कि उनके होने में तो विश्वास है । तो उन्होंने कहा कि यार ! फिर क्या है, अब क्या रह गया ? जब तुम यह मानते हो कि परमात्मा है, ईश्वर है, भगवान है; तब फिर क्या रह गया यार ? तुम उनके शरणागत हो जाओ । वे स्वयं शरणागत का भेष बना कर आए और मुझे अपनी शरणागति प्रदान कर गए ।

        आप जानते हैं, शरणागत को कुछ करना नहीं पड़ता । उसे तो याद आती है, वह याद करता नहीं है । उसे विरह होता है । वह विरही भी अपने बल से नहीं बनता, वे करुणासागर ही अपना विरह देते हैं, अपना मिलन देते हैं । उनका मिलन भी नित्य है, उनका विरह भी नित्य है । नित्य विरह और नित्य मिलन शरणागत को मिलता है । नित्य विरह न मिले, तो प्रेम की वृद्धि न हो, और नित्य मिलन न हो, तो प्रेम सजीव न हो । वे अपने दिए हुए प्रेम को सजीव भी कर देते हैं और उत्तरोत्तर बढ़ाते भी रहते हैं । यह उनकी महिमा है ।

        आप जानते हैं, यह महिमा कब अनुभव में आती है, कब भासित होती है ? जब मानव अधीर होकर, अपने बल से निराश होकर केवल यह सोचता है कि कोई अपना होता और मुझे अपनाकर मेरे ताप को हर लेता, मेरी व्यथा को हर लेता, अभाव को हर लेता, इस नीरसता को हर लेता, इस भय को हर लेता, मुझे अभय कर देता, मुझे सरस कर देता, मुझे अपना लेता ! यह आवश्यकता मात्र जब जगती है, तब वे देखते हैं कि अब तो इसने अपनी वास्तविक आवश्यकता को सोचा है, समझा है, अपनी आवश्यकता अनुभव की है, तब उनकी अनुपम लीला ऐसी विचित्र होती है कि देखते ही बनता है ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)