Monday 28 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 28 November 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दुःख का प्रभाव 

        सुख की दासता रखते हुए दुःख का भय किसी भी प्रकार मिट नहीं सकता। इस कारण सुख की दासता का अन्त करना अनिवार्य है। सुख की दासता आए हुए सुख को सुरक्षित नहीं रख पाती, फिर भी सुख का भोगी उसका त्याग नहीं कर सकता । यह कैसी विडम्बना है ! सुख की दासता ही दुःख का भोग कराती है, दुःख का प्रभाव नहीं होने देती । दुःख का प्रभाव सुख-काल में भी सुख की दासता से मुक्त कर देता है । इस दृष्टि से आए हुए दुःख का प्रभाव विकास का मूल है । पर यह रहस्य वे ही जान पाते हैं, जिन्होनें सुख-दुःख की वास्तविकता को भलीभाँति निज-विवेक के प्रकाश में अनुभव किया है ।

        वस्तुतः दुःख का भय ही दुखी को दुःख के भोग में प्रवृत करता है, उसका प्रभाव नहीं होने देता । जिस अनुकूलता के जाने का दुःख है, क्या वह अनुकूलता किसी भी प्रयास से सुरक्षित रह सकती है ? कदापि नहीं । प्रतिकूलता, अनुकूलता की दासता का अन्त करने के लिए आती है । उससे भयभीत होना भूल है। अनुकूलता करुणित बनाने के लिए आती है । उसका भोग करना प्रमाद है । इस दृष्टि से अनुकूलता तथा प्रतिकूलता सदैव नहीं रहेंगी । इन दोनों का सदुपयोग अनिवार्य है । इनमें जीवन-बुद्धि स्वीकार करना असावधानी है । असावधानी के समान और कोई बात अहितकर नहीं है । असावधानी का मानव-जीवन में कोई स्थान ही नहीं है । इस कारण वर्तमान में ही सजगतापूर्वक असावधानी का अन्त करना अनिवार्य है ।

        निज-विवेक के अनादर से ही असावधानी उत्पन्न होती है। असावधानी किसी और की देन नहीं है और न किसी कर्म-विशेष का ही फल है, अपितु उत्पन्न हुई असावधानी निज-विवेक का आदर करने से स्वतः नष्ट हो जाती है । दुःख का प्रभाव निज-विवेक के आदर में हेतु है और दुःख का भोग अविवेक को पोषित करता है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 20-21)