Sunday 27 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 27 November 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०६८, रविवार)
        
दुःख का प्रभाव 
    
     प्राकृतिक नियमानुसार जो न चाहने पर भी प्रत्येक प्राणी के जीवन में आ ही जाता है, वही दुःख है और जो चाहते हुए भी नहीं रहता, वही सुख है । ऐसे दुःख-सुख को बलपूर्वक रोकना अथवा बनाये रखना किसी भी प्राणी के लिए सम्भव नहीं है। जिसका रोकना सम्भव नहीं है, उसका आदरपूर्वक स्वागत करना अनिवार्य है और जिसके सुरक्षित रखने में सभी असमर्थ हैं, उसमें जीवन-बुद्धि स्वीकार करना प्रमाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

        यह नियम है कि जिसे बलपूर्वक नहीं रोक पाते, उसके आने पर भयभीत होना और जो न चाहते हुए भी चला जाता है, उसकी दासता का अंकित होना - साधारण प्राणियों के लिए स्वाभाविक - सा है; यद्यपि वास्तविक माँग की खोज करने पर स्पष्ट विदित होता है कि भय तथा दासता से युक्त जीवन किसी को भी अभीष्ट नहीं है । इस दृष्टि से मानव-जीवन की मौलिक माँग सब प्रकार के भय तथा दासता से मुक्त होना है । 
 
        मंगलमय विधान के अनुसार माँग की पूर्ति प्रत्येक परिस्थिति में सम्भव है । कामना-पूर्ति कामना के अनुरूप परिस्थिति में ही सम्भव है, परन्तु माँग की पूर्ति प्रत्येक परिस्थिति में होती है । अतएव परिस्थिति-भेद होने पर माँग की पूर्ति से निराश होना अथवा किसी परिस्थिति विशेष का आह्वान करना असावधानी तथा भूल से भिन्न और कुछ नहीं है ।

        भयभीत होने पर प्राप्त सामर्थ्य, योग्यता तथा वस्तु का सद्व्यय नहीं हो पाता और प्राकृतिक नियमानुसार, भयभीत होने से आवश्यक विकास भी नहीं होता; कारण कि भय  से शक्ति क्षीण होती है और असावधानी और प्रमाद पोषित होते हैं, जो विनाश का मूल है । भय का सर्वांश में नाश करने के लिए अपने-आप आए हुए दुःख का प्रभाव आवश्यक है, उसका भोग नहीं।

        दुःख का भोग, गए हुए सुख की दासता तथा लोलुपता एवं उसकी आशा में आबद्ध करता है । जिसे किसी भी प्रकार न रख सकें, उसकी दासता, लोलुपता एवं आशा करना किसी के लिए भी हितकर नहीं है । इस दृष्टि से दुःख के भय तथा सुख की दासता का मानव-जीवन में कोई स्थान ही नहीं है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 19-20)