Friday 18 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 18 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त उद्बोधन

45.    जो अपने में नहीं है, वह कभी भी अपने को नहीं चाहिए - यही वास्तविक त्याग है। इसको अपनाये बिना चिर-शान्ति, जीवन-मुक्ति तथा परम प्रेम की प्राप्ति नहीं हो सकती ।

46.    निर्लोभता के बिना दरिद्रता का, निर्मोहता के बिना भय का, निष्कामता के बिना अशान्ति का और असंगता के बिना पराधीनता का नाश नहीं होता । यह दैवी विधान है ।

47.    देहाभिमान रहते हुए कभी भी कोई भी पराधीनता आदि विकारों से रहित नहीं हो सकता । इस दृष्टि से सुख, सुविधा, सम्मान की वासना का अन्त करना अनिवार्य है, जो एकमात्र सत्य को स्वीकार करने पर ही सम्भव है ।

48.    आंशिक साधना के आधार पर अपने को सन्तुष्ट करना बड़ी ही भयंकर असाधना है । इससे सजग साधक को बड़ी ही सावधानीपूर्वक अपने को बचाना चाहिए । यह तभी सम्भव होगा जब साधक को आंशिक असाधना भी असह्य हो जाय । उसके लिए आंशिक साधना को साधना नहीं मानना चाहिए ।

49.    असाधन प्राकृतिक नहीं है । मानव अपनी ही भूल से असत् के संग को अपनाकर असाधन को जन्म देता है । जिसे मानव ने अपनी भूल से उत्पन्न किया है, उसका नाश भूल-रहित होने पर ही होगा । इस दृष्टि से भूल-रहित होने में ही मानव का पुरुषार्थ है। भूल-रहित होने के लिए अपनी भूल का अनुभव करना अत्यन्त आवश्यक है । अपनी भूल का अनुभव तभी होगा, जब आंशिक साधना को अपनी साधना स्वीकार न किया जाय, अपितु आंशिक असाधन को भूल मान लिया जाय । 

- ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page No. 24-26) [For details, please read the book]