Tuesday 15 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 15 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त उद्बोधन

25.    जबतक तुम बुरे नहीं होते, बुराई नहीं पैदा होती। मन में कोई विकृति नहीं है। ........... अपनी खराबी ठीक करो, मन ठीक हो जाएगा। तुम किसी को बुरा मत समझो, मन में बुरी बात कभी नहीं आएगी । तुम किसी का बुरा मत चाहो, मन में बुरी बात कभी नहीं आएगी । तुम किसी के साथ बुराई मत करो, मन में बुरी बात कभी नहीं आएगी । हमारी भूल मन में दिखती है । भूल हम करते हैं और नाम मन का रख देते हैं। बुराई करनेवाला खुद दुःखी होता है और दूसरों को भी दुःखी करता है ।

26.    अपने को बुरा मानोगे, तो बुराई करोगे । अपने को भला मानोगे, तो भलाई करोगे । और भला-बुरा कुछ नहीं मानोगे, तो परमात्मा में रहोगे ।

27.    मनुष्य सर्वांश में बुरा नहीं हो सकता, पर सर्वांश में भला हो सकता है ।

28.    जिसके करने की सामर्थ्य प्राप्त हो, जिसमें किसी का अहित न हो, जिसके बिना करे नहीं रह सकते हो और जिसका सम्बन्ध वर्तमान से हो - ऐसा काम ही जरूरी होता है ।

29.    संसार कभी आपसे नहीं कहता कि मुझे पसन्द करो, तुम्हीं पसन्द करते हो । संसार की किसी वस्तु ने कभी कहा है कि मैं तुम्हारी हूँ ? तुम्हारे मकान ने कहा हो, तुम्हारी जेब के पैसों ने कहा हो, तुम्हारी इंद्रियों ने कहा हो । तुम्हारे शरीर से लेकर संसार की जितनी भी चीजें हैं, उनमें से किसने कहा कि मैं तुम्हारी हूँ ? तुम बिना वजह 'अपना-अपना' गीत गाते हो । कहते हो 'मेरा मन', 'मेरा हाथ' आदि ।

30.    जानी हुई बुराई करो मत और जो बुराई कर चुके हो, उसे दोहराओ मत । तो आगे बढ़ जाओगे ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page No. 15-17) [For details, please read the book]