Wednesday 2 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 02 November 2011
(कर्तिक शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)

प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?

        हम आपको क्या बताएँ, वे (संसार के रचयिता) देखते हैं कि मनुष्य का कौन सा संकल्प ऐसा है जिसकी अपूर्ति से यह पीड़ित है ? उस संकल्प को अनायास ही वे पूरा कर देते हैं। जब वे यह देखते हैं कि संकल्पपूर्ति के सुख में यह मेरे महत्व को भूलने लगा है, तब वे करुणित होकर संकल्प-अपूर्ति की परिस्थिति बनाकर निःसंकल्प होने की प्रेरणा देते हैं, सामर्थ्य देते हैं । अन्त में निःसंकल्प भी कर देते हैं। जब वे यह देखते हैं कि निःसंकल्पता की शान्ति के आनन्द में विभोर हो गया और मुझे भूलने लगा है, यह अपने आप ही अपनी महिमा गाने लगा है, अपने आप में ही अपने को पाने लगा है । तब वे बड़ी भारी करुणा करके मुक्ति के आनन्द को भी, निःसंकल्पता के आनन्द को भी फीका-फीका कर देते हैं ।

        मैं सच कहता हूँ कि वे ऐसी लीला करने लगते हैं कि मनुष्य सोचने लगता है कि अरे, अभी तो कुछ मिला ही नहीं । फिर जब उनका शरणागत ही अधीर होता है, तब वे इस बात का प्रत्यक्ष अनुभव करा देते हैं कि भैया, तेरे लिए कुछ हुआ तो नहीं । यार ! तू वैसे ही सोच बैठा कि मैं योग्य लेखक हो गया, मैं वक्ता हो गया, मुझे गुरुपद मिल गया, मुझे तत्व-ज्ञान हो गया । तू अनेक छोटी-छोटी बातों में मेरे यार, मुझे क्यों भूल गया ? अरे भैया ! मैंने तो तेरा निर्माण इस लिए किया था कि तू मुझे सदैव अपना मानता रहेगा और मैं तुझे अपना समझता रहूँगा ।

        थोड़ी सी शान्ति के रस में, थोड़े से निजानन्द को पाकर क्या मुझे भूल गया ? अरे भैया ! तू मुझे भूल सकता है, पर मैं तुझे नहीं भूल सकता । मैं सच कहता हूँ कि यदि उन्हें हमारी याद न आई होती, तो हमें उनकी याद नहीं आती । उन्हें हमारी याद आती है, क्योंकि वे हमे अपना मानते हैं और जानते हैं । तभी हम उनसे यह कह पाते हैं कि मैं तेरा हूँ और तू मेरा है । आप सच मानिए, मानव का निर्माण इसी उद्देश्य के लिए था, मानव-जीवन इसीलिए मिला ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)