Wednesday 9 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 09 November 2011
(कर्तिक शुक्ल वैकुण्ठ चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

31.    उनकी अहैतुकी कृपा आवश्यक वस्तु बिना माँगे ही दे देती है और अनावश्यक माँगने पर भी नहीं देती । इस दृष्टि से कुछ भी माँगना अपनी बेसमझी का परिचय देना है और उनके मंगलमय विधान का अनादर करना है।

32.    अगर इन्द्रियाँ संसार की ओर जाती हैं तो अपराध क्या है उनका ? संसार की जाति की ही हैं । लेकिन आप क्यों संसार को पसन्द करते हो जी, यह बताओ ? आप तो भगवान की जाति के हैं।

33.    अपने बल का अभिमान छोड़कर साधक जब यह विकल्प-रहित दृढ़ विश्वास कर लेता है कि मुझ पर भगवान की कृपा अवश्य होगी, मैं उनका कृपापात्र हूँ, उसी समय उस पर भगवान की कृपा अवश्य हो जाती है । इसमें कोई सन्देह नहीं है।

34.    आप सच मानिए, उस अनन्त की अहैतुकी कृपा निरन्तर योग की, ज्ञान की, प्रेम की वर्षा कर रही है । परन्तु दुःख की बात तो यह है कि हम उस कृपा के द्वारा जो वर्षा हो रही है, उसका उपयोग नहीं कर पाते । आप कहें, कैसे उपयोग नहीं कर पाते ? क्या हम थोड़ी-थोड़ी देर के लिए शान्त होते हैं ? यदि शान्त हुए होते तो आपको स्वयं अनुभव होता कि प्रभु की कृपाशक्ति योग दे रही है, प्रेम दे रही है, ज्ञान दे रही है और हम उससे तद्रूप होकर कृतकृत्य हो रहे हैं ।

35.    भूतकाल के दोषों के आधार पर वर्तमान की निर्दोषता में दोष का आरोप करना अपने प्रति अन्याय है । इसका अर्थ यह नहीं है कि भूतकाल की भूल का परिणाम परिस्थिति के रूप में अपने सामने नहीं आयेगा, अवश्य आयेगा; किन्तु भूतकाल के दोष के आधार पर वर्तमान की निर्दोषता में दोष का आरोप करना दोषयुक्त प्रवृति को जन्म देना है ।

36.    पूजा-प्रार्थना सब परमात्मा के साथ करनेवाली बात है । गुरु परमात्मा का बाप हो सकता है, परमात्मा नहीं । हाँ, गुरुवाक्य ब्रह्मवाक्य हो सकता है । गुरु श्रद्धास्पद हो सकता है, प्रेमास्पद नहीं । व्यक्ति को अगर परमात्मा मानना है तो सबको मानो। गुरु साधनरूप हो सकता है, साध्यरूप नहीं ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - सन्त हृदयोद्गार पुस्तक से ।