Thursday 10 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 10 November 2011
(कर्तिक पूर्णिमा, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

37.    आज उपदेष्टा गुरु की लेशमात्र भी आवश्यकता नहीं है । आवश्यकता इस बात की है कि कोई ऐसा वीर पुरुष या वीर महिला हो, जो किसी उपदेश को स्वीकार कर सके ।

38.    दुनिया का बड़े-से-बड़ा गुरु, बड़े-से-बड़ा नेता, बड़े-से-बड़ा राष्ट्र जो काम नहीं कर सकता आपके साथ, अगर आप चाहें तो अपने साथ कर सकते हैं ।

39.    शास्त्रों में नेता या गुरु बनने को पतन का हेतु माना है। इससे यह सिद्ध होता है कि यह काम महापुरुषों के ही उपयुक्त है। साधक को इस बखेड़े में कभी नहीं पड़ना चाहिए ।

40.    वास्तविक गुणों का प्रादुर्भाव होने पर उनका भास नहीं होता । अतः जबतक गुणों का भास हो, तबतक समझना चाहिए कि गुणों के स्वरूप में कोई दोष है ।

41.    जब प्राणी अपनी प्रसन्नता किसी और पर निर्भर कर लेता है, तब उसका चित्त अशुद्ध हो जाता है, जिसके होते ही अनेक दोषों की उत्पत्ति अपने-आप होने लगती है ।

42.    यह सभी जानते हैं कि गहरी नींद में प्राणी प्रिय-से-प्रिय वस्तु और व्यक्ति का त्याग स्वभाव से ही अपना लेता है और उस अवस्था में किसी प्रकार के दुःख का अनुभव नहीं करता, अपितु जाग्रत-अवस्था में यही कहता है कि बड़े सुख से सोया। प्राकृतिक नियम के अनुसार कोई भी स्मृति अनुभूति के बिना नहीं हो सकती । गहरी नींद में कोई दुःख नहीं था, यह अनुभूति क्या साधक को वस्तु, व्यक्ति आदि से अतीत के जीवन की प्रेरणा नहीं देती ? अर्थात् अवश्य देती है । ..........गहरी नींद के समान स्थिति यदि जागृत में प्राप्त कर ली जाय तो यह सन्देह निर्मूल हो जाएगा और यह स्पष्ट बोध हो जाएगा कि वस्तु, व्यक्ति आदि के बिना भी जीवन है और उस जीवन में किसी प्रकार का अभाव नहीं है ।

43.    साधक को विश्वास रखना चाहिए कि जीवन स्वयं अपनी रक्षा करता है । यदि जीवन शेष है तो जीवन के साधन स्वयं प्राप्त हो जायेंगे ।  

(शेष आगेके ब्लागमें) - सन्त हृदयोद्गार पुस्तक से ।