Friday, 30 September 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 30 September 2011
(आश्विन शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)
 
 (गत ब्लॉगसे आगेका)
अधिकार लिप्सा से रहित होना

        कर्तव्यपरायणता, अर्थात् दूसरों के अधिकार की रक्षा से दीर्घकाल के राग की निवृति स्वतः हो जाती है और अपने अधिकार का त्याग करने से नवीन राग उत्पन्न नहीं होता । अतः इस प्रकार साधक बड़ी ही सुगमतापूर्वक राग-रहित हो जाता है, जो सर्वोतोमुखी विकास की भूमि है । इस दृष्टि से दूसरों के अधिकार की रक्षा करते हुए भी अपने अधिकार का त्याग अनिवार्य है ।

        अधिकार के अपहरण होने पर क्रोध से आक्रान्त मानव में विस्मृति उत्पन्न होती है, जिसके होते ही साधक वास्तविकता से विमुख होकर अकर्तव्य, देहाभिमान एवं अनेक प्रकार की आसक्तियों में आबद्ध हो जाता है । इस कारण अधिकार के अपह्रत होने पर क्षोभ से आक्रान्त नहीं होना चाहिये

        यह तभी सम्भव होगा, जब सभी से अपना अधिकार उठाकर, सभी के अधिकार की रक्षा करते हुए, वह लक्ष्य की ओर उत्तरोत्तर अग्रसर होने के लिए अथक प्रयत्नशील रहे ।

        अपना लक्ष्य वही हो सकता है, जिसकी उपलब्धि अपने ही द्वारा अपने को हो सके । जब मानव के रचयिता ने उसे अपने लक्ष्य की प्राप्ति की स्वाधीनता दी है, तो फिर उसे शरीर आदि किसी पर भी अपना अधिकार मानना अपेक्षित नहीं है


   (शेष आगेके ब्लॉगमें)       
–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ १८-१९ (Page No. 18-19)।

Thursday, 29 September 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 29 September 2011
(आश्विन शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
अपने लिये उपयोगी होना

        जब मिले हुए शरीर पर ही अपना स्वतन्त्र अधिकार नहीं है, तो फिर उसी की जाति का जो संसार है, उस पर अधिकार मानना भूल के अतिरिक्त और हो ही क्या सकता है ? हाँ, अपने पर शरीर और संसार का यह अधिकार अवश्य है कि उसके प्रति निर्मम तथा निष्काम होकर उसके हित-चिन्तक बने रहें, अर्थात् आलस्य, अकर्मण्यता, असंयम आदि से शरीर का अहित न करें और शरीर के द्वारा समाज का अहित न करें । यह तभी सम्भव होगा, जब मानव शरीर आदि वस्तुओं को केवल साधन-सामग्री के रूप में ही स्वीकार करें ।

        सर्व-हितकारी प्रवृति अधिकार-त्याग से ही उदित होती है और सहज निवृति की उपलब्धि भी अधिकार-लोलुपता के नाश से ही सिद्ध होती है । सर्व-हितकारी प्रवृति और सहज निवृति एक ही जीवन के दो पहलू हैं । उदारता और असंगता अधिकार-त्याग की ही देन है ।

        उदारता समस्त विश्व के साथ एकता और असंगता देहातीत जीवन से अभिन्नता प्रदान करने में समर्थ है । इस दृष्टि से अधिकार त्याग की बड़ी महिमा है । अधिकार देकर भी अधिकार पाने की अभिरुचि देह से तादात्म्य उत्पन्न कर देती है, जो समस्त दोषों की भूमि है । इस कारण साधक को शरीर, परिवार, समाज आदि से अपना अधिकार हटा लेना चाहिये ।

        अधिकार हटाने का अर्थ शरीर आदि की उपेक्षा नहीं है, अपितु सभी के प्रति सद्भावना रखते हुए, अपने को अधिकार के भार से मुक्त कर, सभी को अभय करना है । अधिकार के भार से दबा हुआ समाज भयभीत होकर स्वयं अधिकार-लोलुपता में आबद्ध हो जाता है । ज्यों-ज्यों अधिकार-लोलुपता बढती जाती है, त्यों-त्यों कर्तव्य की विस्मृति होती जाती है और अनेक पारस्परिक संघर्ष उत्पन्न हो जाते हैं । इस कारण प्रत्येक साधक को शीघ्रातिशीघ्र अपने को अधिकार-लोलुपता से रहित करना अनिवार्य है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)       
–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ १७-१८ (Page No. 17-18)।

Wednesday, 28 September 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 28 September 2011
(आश्विन शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, बुधवार)
 
 (गत ब्लॉगसे आगेका)
अपने लिये उपयोगी होना

        यह कैसा आश्चर्य है कि जिसे मानव स्वयं कर सकता है, उसे न करे ! क्या यह अपने ही द्वारा अपना विनाश करना नहीं है ? अपने विनाश का कारण दूसरों को मानना और अपने द्वारा स्वयं निष्काम न होना तथा अपने और दूसरों के बीच वैर-भाव उत्पन्न करना, क्या साधक की अपनी भूल नहीं है? अवश्य है ।

        निष्काम होते ही निर्वैरता, समता, मुदिता आदि दिव्य गुण स्वतः अभिव्यक्त होते हैं । योग, बोध और प्रेम से विमुख करने में कामना ही हेतु है । निष्कामता से चित्त स्वतः शुद्ध, शान्त तथा स्वस्थ होता है, जिसके होते ही कर्तव्यपरायणता तथा योग की प्राप्ति स्वतः होती है

        निष्कामता से उदित शान्ति में ही आवश्यक सामर्थ्य की अभिव्यक्ति होती है । असमर्थता ही मानव को पराधीनता में आबद्ध करती है, और आवश्यक सामर्थ्य की उपलब्धि से ही पराधीनता का नाश होता है । इस कारण निष्कामता से प्राप्त शान्ति का सम्पादन प्रत्येक साधक के लिये अनिवार्य है ।

अधिकार लिप्सा से रहित होना :- निष्काम होते ही अपने अधिकार के त्याग का बल साधक में स्वतः आ जाता है । अथवा यों कहो कि अधिकार-लोलुपता में मानव को कामना ही आबद्ध रखती है । मानव की स्वाधीनता दूसरों के अधिकार की रक्षा ही में है, अपने अधिकार को पाने में मानव स्वाधीन नहीं है । हाँ, यह अवश्य है कि जो दूसरों के अधिकार की रक्षा करता है, उसके प्रति जगत् की उदारता स्वतः होती है । इस दृष्टि से अधिकार देने में ही अधिकार है । अधिकार-लोलुपता तो मानव को राग में आबद्ध तथा क्रोध से आक्रान्त करती है, जो विनाश का मूल है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)       
–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ १६-१७ (Page No. 16-17)।

Tuesday, 27 September 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 27 September 2011
(आश्विन अमावस्या, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)
 
  (गत ब्लॉगसे आगेका)
अपने लिये उपयोगी होना

        स्वाधीनतापूर्वक साधक मृत्यु के भय से रहित हो, अमरत्व से अभिन्न हो सकता है । इतना ही नहीं, स्वाधीन होकर ही साधक उदारता और प्रेम से अभिन्न होता है । पराधीन प्राणी के जीवन में न तो उदारता ही आती है, और न प्रेम ही की अभिव्यक्ति होती है । इस कारण पराधीनता का नाश करना अनिवार्य है, जो एकमात्र निष्कामता से ही साध्य है

        निष्कामता में ऐश्वर्य है; कारण कि निष्कामता साधक को विश्व-विजयी बना देती है । जिसे कुछ नहीं चाहिये, उस पर संसार विजयी नहीं हो सकता, अर्थात् कामना-रहित होते ही मानव का मूल्य समस्त विश्व से अधिक हो जाता है और वह विश्व के आश्रय तथा प्रकाशक के प्रेम का अधिकारी बन जाता है। कामनायुक्त प्राणी मिली हुई वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य आदि का सदुपयोग नहीं कर पाता । इस कारण वह परिवार, समाज, संसार के लिये अनुपयोगी हो जाता है ।

        यह सभी को विदित है कि निष्कामता के बिना स्वाधीनता नहीं आती और स्वाधीनता के बिना मानव अपने लिये अनुपयोगी होता है । भला, जिसे कुछ भी चाहिए, वह किसी का प्रेमी कैसे हो सकता है ? प्रेम-रहित जीवन प्रभु के लिये उपयोगी नहीं होता । अतएव कामना मानव को सभी के लिये अनुपयोगी कर देती है

        यह सभी के लिये मान्य है कि कामना की पूर्ति में राग और अपूर्ति में क्रोध की उत्पत्ति होती है । राग मानव को जड़ता में आबद्ध करता है और क्रोध से कर्तव्य की, निज-स्वरूप की तथा प्रभु की विस्मृति होती है । अर्थात् वह वास्तविकता से अपरिचित हो जाता है, जो विनाश का मूल है । इस कारण प्रत्येक साधक के लिये शीघ्रातिशीघ्र कामनाओं का नाश करना अत्यन्त आवश्यक है । 

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)       
–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ १६ ।

Monday, 26 September 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 26 September 2011
           (आश्विन कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
अपने लिये उपयोगी होना

        निष्कामता एक वास्त्विकता है । इस दृष्टि से सत्संग से निष्कामता और निष्कामता से सत्संग स्वतः सिद्ध होता है । कामना असत् का संग उत्पन्न करती है । असत् के संग से ही समस्त विकारों तथा अभाओं का जन्म होता है । इस कारण कामनाओं का अन्त करना अत्यन्त आवश्यक है

        कामना-मात्र से किसी इच्छित वस्तु की उपलब्धि नहीं होती । इस दृष्टि से भी साधक के जीवन में कामना का कोई स्थान नहीं है । कामना व्यर्थ चिन्तन में आबद्ध कर, वर्तमान परिस्थिति के सदुपयोग में बाधक होती है । व्यर्थ चिन्तन से प्राप्त सामर्थ्य का ह्रास ही होता है, जिसके होने से कर्तव्य-कर्म पूरा नहीं हो पाता । कर्तव्य की अपूर्ति अकर्तव्य की जननी है । इस दृष्टि से कामनाओं से साधक का ह्रास ही होता है ।

        कामनाओं के त्याग में कोई परिश्रम नहीं है और न किसी वस्तु, व्यक्ति आदि की अपेक्षा ही होती है । इस कारण कामनाओं का त्याग प्रत्येक साधक के लिये सम्भव है । कामनापूर्ति में पराधीनता है, त्याग में नहीं । स्वाधीनतापूर्वक साधक स्वाधीनता के साम्राज्य में सदा के लिये प्रवेश कर सकता है, किन्तु कामनाओं को रखते हुए पराधीनता कभी नष्ट नहीं होती ।

        जब साधक को पराधीनता असह्य हो जाती है, तब उसे निष्कामता अपनाने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती । पराधीनता सहन करते रहने से ही कामनायें पोषित होती हैं । पराधीनता मानव को चिन्मय-जीवन से विमुख कर जड़ता में आबद्ध करती है । इस दृष्टि से पराधीनता सहन करना भारी भूल है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)       
–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ १५-१६।

Sunday, 25 September 2011

साधन-निधि

Sunday, 25 September 2011

(आश्विन कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, रविवार)

अपने लिये उपयोगी होना

(गत ब्लॉगसे आगेका)

भूल से उत्पन्न हुई कामनाओं का अन्त भूल-रहित होने से ही सम्भव है, किसी अभ्यास से कामनाओं का नाश नहीं होता । अभ्यास के लिये तो देह का आश्रय लेना अनिवार्य होता है और देह के आश्रय-मात्र से ही कामनाओं की उत्पत्ति होती है । इससे यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि तप आदि से कामनाओं का नाश नहीं होता । तप से शक्ति आदि की उपलब्धि होती है, किन्तु निष्कामता एकमात्र सत्संग से ही प्राप्त होती है । इस कारण प्रत्येक साधक के लिये सत्संग के प्रकाश में अपने को सदैव रखना अत्यंत आवश्यक है ।

सत्संग कोई अभ्यास अथवा तप नहीं है, अपितु साधक का ‘स्व-धर्म’ है । अर्थात् पराश्रय के बिना अपने ही द्वारा जिसकी सिद्धि होती है, वही सत्संग है । अब विचार यह करना है कि मिले हुए शरीर से अहम्-बुद्धि तथा मम-बुद्धि का त्याग, अथवा आस्था, श्रद्धा, विश्वासपूर्वक शरणागति, अथवा मिले हुए का दुरूपयोग न करना, क्या प्रत्येक साधक अपने द्वारा स्वयं नहीं कर सकता ?

इस दृष्टि से निष्काम होने के लिये साधक को सत्संगी होना परम आवश्यक है । सत्संग की तीव्र माँग प्रत्येक साधक के जीवन में रहनी चाहिये । प्राकृतिक नियमानुसार एक काल में एक ही माँग रहती है । सत्संग की माँग साधक को भूल-रहित होने की सामर्थ्य प्रदान करती है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ १४-१५

Saturday, 24 September 2011

साधन-निधि

Saturday, 24 September 2011

(आश्विन कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

अपने लिये उपयोगी होना

(गत ब्लॉगसे आगेका)

वे सभी कामनायें, जो मिली हुई वस्तु, योग्यता और सामर्थ्य के द्वारा दूसरों के अधिकार की रक्षा में हेतु हैं, उनकी पूर्ति वर्तमान कर्तव्य-कर्म द्वारा हो सकती है । किन्तु उसके बदले में अपने लिये कुछ भी चाहिये, तो साधक निष्काम नहीं हो सकता । निष्काम कर्ता से ही कर्तव्य-पालन होता है । इस दृष्टि से साधक के जीवन में कामनाओं का कोई स्थान ही नहीं है ।

कर्तव्य-कर्म द्वारा प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग होता है । निष्काम होते ही परिस्थिति के सदुपयोग में किसी प्रकार की असुविधा नहीं होती । कामना-युक्त प्राणी प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग नहीं कर पाता और न अप्राप्त परिस्थितियों के चिन्तन से ही मुक्त होता है । इतना ही नहीं, परिस्थितियों की दास्ता में आबद्ध होकर वह दीनता और अभिमान की अग्नि में दग्ध होता रहता है । यह बड़ी ही शोचनीय दशा है, जो एकमात्र निष्काम होने से ही मिट सकती है ।

निष्कामता को अपनाते ही प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करने की तथा अप्राप्त परिस्थितियों के चिन्तन से रहित होने की सामर्थ्य स्वतः आ जाती है । इतना ही नहीं, सभी परिस्थितियों, अर्थात् सुख-दुःख से अतीत के जीवन में प्रवेश सहज तथा स्वाभाविक हो जाता है । इस कारण निष्कामता को अपनाना प्रत्येक साधक के लिये अनिवार्य है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ १३-१४

Friday, 23 September 2011

साधन-निधि

Friday, 23 September 2011

(आश्विन कृष्ण एकादसी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

अपने लिये उपयोगी होना

(गत ब्लॉगसे आगेका)

कामना-रहित होना :- ममता का सर्वांश में अंत होते ही कामनाओं का नाश सुलभ हो जाता है; कारण, कि मिले हुए शरीर और देखे हुए जगत् में जातीय एकता है । जिस धातु से शरीर निर्मित है, उसी धातु से जगत् भी निर्मित है । जब मिला हुआ ही अपना नहीं है, तो फिर प्रतीत होनेवाले जगत् की कामनाओं का साधक के जीवन में कोई स्थान ही नहीं रहता; कारण, कि मिले हुए में अहम्-बुद्धि और मम-बुद्धि स्वीकार करने से ही कामनाओं की उत्पत्ति होती है । किन्तु सभी कामनाओं की पूर्ति नहीं होती ।

यद्यपि कामना-पूर्ति के सुख का भोग नवीन कामनाओं को जन्म देता है और अन्त में कामना आपूर्ति का दुःख ही शेष रहता है इस दृष्टि से कामनाओं की पूर्ति और आपूर्ति दोनों एक ही सिक्के के दो पहलुओं के समान हैं इतना ही नहीं, कामना-पूर्ति का सुख मानव को जड़ता में आबद्ध करता है और कामना-अपूर्ति के दुःख से सजगता आती है यह कैसा अनुपम मंगलकारी विधान है कि जो साधक को जड़ता में आबद्ध रहने ही नहीं देता !

कामना-पूर्ति काल में मानव पराधीन होकर भी सुख का अनुभव करता है, यह कैसा प्रमाद है ? इस प्रमाद का अन्त करने के लिये ही दुःख का प्रादुर्भाव होता है । किन्तु दुःख के प्रभाव को न अपनाकर, कामना-पूर्ति जनित पराधीनता को बनाये रखने कि अभिरुचि, क्या अपने ही द्वारा अपना विनाश करना नहीं है ? अवश्य है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ १३

Be Useful for Self

(Continuance from previous blog)

To be desire free :- Just by ending the worldly attachment in totality, the end of desires become easy; reason being, there is a racial unity between the body we got and the world we see. The composition of the body is same as that of the composition of the world. When the whatever we have received itself is not ours then the desires of the apparent world bear no place in the life of the seeker (sadhak); reason being, the acceptance of perceived ego-intelligence and mine-intelligence in whatever we have is the source of all desires. But all desires never get fulfilled for any body.

Although pleasure of enjoyment in the fulfillment of desires gives birth to the new desires and in the end what remains is the sorrow of unfulfilled desires. By this vision, fulfillment of desires and dissatisfaction of unfulfilled desires are like two faces of the same coin. Not only this, the pleasure of fulfillment of desires puts man into inertia and the sorrow of unfulfilled desires brings man into alertness. How unrivaled beneficial legislation is this, which prevents a seeker from being in the state of inertia.

During the time of fulfillment of desires, man being in dependent state feels the pleasure. How negligence is this? To end this negligence only, the outbreak of sorrow comes in one’s life. But by not accepting the effect of sorrow, the zest of maintaining dependence on fulfillment of desire, is it not self destruction by none other than self only? Certainly this is.

(Reamining in next blog) From Book “Sadhn-nidhi” Page No. 13.

Thursday, 22 September 2011

साधन-निधि

Thursday, 22 September 2011

(आश्विन कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

अपने लिये उपयोगी होना

(गत ब्लॉगसे आगेका)

कुछ साधकों को यह भ होता है कि ममता के बिना शरीर, परिवार, समाज आदि की सेवा कैसे हो सकती है ? इस सम्बन्ध में विचार करने से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि ममता तो साधक को सेवा से विमुख ही करती है । शरीर की ममता परिवार के हित से, परिवार की ममता समाज के हित से, समाज की ममता देश की हित से और देश की ममता विदेश के हित से विमुख कर देती है । सेवा उसे नहीं कहते, जो सभी के लिये हितकर न हो । अतएव यह स्पष्ट ही सिद्ध है कि ममता ने तो साधक को सेवा से विमुख कर स्वार्थ में, असीम से सीमित में, नित्य से अनित्य में, चेतना से जड़ता में ही आबद्ध किया है । अतः यह स्वीकार करना कि ममता के बिना सेवा नहीं हो सकती, भारी भूल है ।

जिस ममता ने अपना ही विकास रोक दिया, भला वह दूसरों के लिये हितकर कैसे हो सकती है ? अर्थात् उससे दूसरों का विकास हो ही नहीं सकता । इतना ही नहीं, ममता जिसमें उत्पन्न होती है और जिसके प्रति होती है, दोनों ही के लिये अहितकर है । अतएव ममता का साधक के जीवन में कोई स्थान ही नहीं है ।

निर्मम होने कि स्वाधीनता का उपयोग न करना और हार मानकर बैठ जाना सभी साधकों के लिये सर्वथा त्याज्य है । यह वैधानिक तथ्य है कि मिली हुई स्वाधीनता का उपयोग अपने ही को करना होगा ।

यह अवश्य है कि कभी-कभी साधक प्रमादवश जो कर सकता है, उसी को करने में अपने को असमर्थ मान लेता है । ऐसी दशा में निर्मम होने कि उत्कट लालसा उसे प्रार्थी बना देती है । वैधानिक प्रार्थना की पूर्ति मंगलमय विधान से अवश्य पूरी होती है ।

अब रही केवल निर्मम होने की तीव्र आवश्यकता अनुभव करना । इतना ही दायित्व यदि साधक पूरा कर डाले, तो निर्मम होना सहज तथा स्वाभाविक हो जायेगा; कारण कि जब साधक वास्तविकता की ओर अग्रसर होता है, तब समस्त सृष्टि और उसके आश्रय तथा प्रकाशक उसे हर्षपूर्वक अपनाते हैं । इस दृष्टि से साधक के जीवन में हार मान लेने अथवा निराश होने के लिये कोई स्थान ही नहीं है ।

अल्प-से-अल्प आयु तथा सामर्थ्य क्यों न रह जाय, वास्तविकता की उत्कट माँग की जागृती में सफलता अनिवार्य है । यह साधक के जीवन की महिमा है, जो उसके रचयिता ने अपनी अहैतुकी कृपा से प्रेरित होकर प्रदान की है । मिली हुई महिमा का आदर करो और उस महा महिमावान को अपना स्वीकार करो, यही सफलता की कुंजी है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे