Sunday, 25 September 2011

साधन-निधि

Sunday, 25 September 2011

(आश्विन कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, रविवार)

अपने लिये उपयोगी होना

(गत ब्लॉगसे आगेका)

भूल से उत्पन्न हुई कामनाओं का अन्त भूल-रहित होने से ही सम्भव है, किसी अभ्यास से कामनाओं का नाश नहीं होता । अभ्यास के लिये तो देह का आश्रय लेना अनिवार्य होता है और देह के आश्रय-मात्र से ही कामनाओं की उत्पत्ति होती है । इससे यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि तप आदि से कामनाओं का नाश नहीं होता । तप से शक्ति आदि की उपलब्धि होती है, किन्तु निष्कामता एकमात्र सत्संग से ही प्राप्त होती है । इस कारण प्रत्येक साधक के लिये सत्संग के प्रकाश में अपने को सदैव रखना अत्यंत आवश्यक है ।

सत्संग कोई अभ्यास अथवा तप नहीं है, अपितु साधक का ‘स्व-धर्म’ है । अर्थात् पराश्रय के बिना अपने ही द्वारा जिसकी सिद्धि होती है, वही सत्संग है । अब विचार यह करना है कि मिले हुए शरीर से अहम्-बुद्धि तथा मम-बुद्धि का त्याग, अथवा आस्था, श्रद्धा, विश्वासपूर्वक शरणागति, अथवा मिले हुए का दुरूपयोग न करना, क्या प्रत्येक साधक अपने द्वारा स्वयं नहीं कर सकता ?

इस दृष्टि से निष्काम होने के लिये साधक को सत्संगी होना परम आवश्यक है । सत्संग की तीव्र माँग प्रत्येक साधक के जीवन में रहनी चाहिये । प्राकृतिक नियमानुसार एक काल में एक ही माँग रहती है । सत्संग की माँग साधक को भूल-रहित होने की सामर्थ्य प्रदान करती है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ १४-१५