Monday, 26 September 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 26 September 2011
           (आश्विन कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
अपने लिये उपयोगी होना

        निष्कामता एक वास्त्विकता है । इस दृष्टि से सत्संग से निष्कामता और निष्कामता से सत्संग स्वतः सिद्ध होता है । कामना असत् का संग उत्पन्न करती है । असत् के संग से ही समस्त विकारों तथा अभाओं का जन्म होता है । इस कारण कामनाओं का अन्त करना अत्यन्त आवश्यक है

        कामना-मात्र से किसी इच्छित वस्तु की उपलब्धि नहीं होती । इस दृष्टि से भी साधक के जीवन में कामना का कोई स्थान नहीं है । कामना व्यर्थ चिन्तन में आबद्ध कर, वर्तमान परिस्थिति के सदुपयोग में बाधक होती है । व्यर्थ चिन्तन से प्राप्त सामर्थ्य का ह्रास ही होता है, जिसके होने से कर्तव्य-कर्म पूरा नहीं हो पाता । कर्तव्य की अपूर्ति अकर्तव्य की जननी है । इस दृष्टि से कामनाओं से साधक का ह्रास ही होता है ।

        कामनाओं के त्याग में कोई परिश्रम नहीं है और न किसी वस्तु, व्यक्ति आदि की अपेक्षा ही होती है । इस कारण कामनाओं का त्याग प्रत्येक साधक के लिये सम्भव है । कामनापूर्ति में पराधीनता है, त्याग में नहीं । स्वाधीनतापूर्वक साधक स्वाधीनता के साम्राज्य में सदा के लिये प्रवेश कर सकता है, किन्तु कामनाओं को रखते हुए पराधीनता कभी नष्ट नहीं होती ।

        जब साधक को पराधीनता असह्य हो जाती है, तब उसे निष्कामता अपनाने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती । पराधीनता सहन करते रहने से ही कामनायें पोषित होती हैं । पराधीनता मानव को चिन्मय-जीवन से विमुख कर जड़ता में आबद्ध करती है । इस दृष्टि से पराधीनता सहन करना भारी भूल है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)       
–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ १५-१६।