Tuesday, 27 September 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 27 September 2011
(आश्विन अमावस्या, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)
 
  (गत ब्लॉगसे आगेका)
अपने लिये उपयोगी होना

        स्वाधीनतापूर्वक साधक मृत्यु के भय से रहित हो, अमरत्व से अभिन्न हो सकता है । इतना ही नहीं, स्वाधीन होकर ही साधक उदारता और प्रेम से अभिन्न होता है । पराधीन प्राणी के जीवन में न तो उदारता ही आती है, और न प्रेम ही की अभिव्यक्ति होती है । इस कारण पराधीनता का नाश करना अनिवार्य है, जो एकमात्र निष्कामता से ही साध्य है

        निष्कामता में ऐश्वर्य है; कारण कि निष्कामता साधक को विश्व-विजयी बना देती है । जिसे कुछ नहीं चाहिये, उस पर संसार विजयी नहीं हो सकता, अर्थात् कामना-रहित होते ही मानव का मूल्य समस्त विश्व से अधिक हो जाता है और वह विश्व के आश्रय तथा प्रकाशक के प्रेम का अधिकारी बन जाता है। कामनायुक्त प्राणी मिली हुई वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य आदि का सदुपयोग नहीं कर पाता । इस कारण वह परिवार, समाज, संसार के लिये अनुपयोगी हो जाता है ।

        यह सभी को विदित है कि निष्कामता के बिना स्वाधीनता नहीं आती और स्वाधीनता के बिना मानव अपने लिये अनुपयोगी होता है । भला, जिसे कुछ भी चाहिए, वह किसी का प्रेमी कैसे हो सकता है ? प्रेम-रहित जीवन प्रभु के लिये उपयोगी नहीं होता । अतएव कामना मानव को सभी के लिये अनुपयोगी कर देती है

        यह सभी के लिये मान्य है कि कामना की पूर्ति में राग और अपूर्ति में क्रोध की उत्पत्ति होती है । राग मानव को जड़ता में आबद्ध करता है और क्रोध से कर्तव्य की, निज-स्वरूप की तथा प्रभु की विस्मृति होती है । अर्थात् वह वास्तविकता से अपरिचित हो जाता है, जो विनाश का मूल है । इस कारण प्रत्येक साधक के लिये शीघ्रातिशीघ्र कामनाओं का नाश करना अत्यन्त आवश्यक है । 

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)       
–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ १६ ।