Wednesday, 28 September 2011
(आश्विन शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, बुधवार)
(गत ब्लॉगसे आगेका)
अपने लिये उपयोगी होना
यह कैसा आश्चर्य है कि जिसे मानव स्वयं कर सकता है, उसे न करे ! क्या यह अपने ही द्वारा अपना विनाश करना नहीं है ? अपने विनाश का कारण दूसरों को मानना और अपने द्वारा स्वयं निष्काम न होना तथा अपने और दूसरों के बीच वैर-भाव उत्पन्न करना, क्या साधक की अपनी भूल नहीं है? अवश्य है ।
निष्काम होते ही निर्वैरता, समता, मुदिता आदि दिव्य गुण स्वतः अभिव्यक्त होते हैं । योग, बोध और प्रेम से विमुख करने में कामना ही हेतु है । निष्कामता से चित्त स्वतः शुद्ध, शान्त तथा स्वस्थ होता है, जिसके होते ही कर्तव्यपरायणता तथा योग की प्राप्ति स्वतः होती है ।
निष्कामता से उदित शान्ति में ही आवश्यक सामर्थ्य की अभिव्यक्ति होती है । असमर्थता ही मानव को पराधीनता में आबद्ध करती है, और आवश्यक सामर्थ्य की उपलब्धि से ही पराधीनता का नाश होता है । इस कारण निष्कामता से प्राप्त शान्ति का सम्पादन प्रत्येक साधक के लिये अनिवार्य है ।
अधिकार लिप्सा से रहित होना :- निष्काम होते ही अपने अधिकार के त्याग का बल साधक में स्वतः आ जाता है । अथवा यों कहो कि अधिकार-लोलुपता में मानव को कामना ही आबद्ध रखती है । मानव की स्वाधीनता दूसरों के अधिकार की रक्षा ही में है, अपने अधिकार को पाने में मानव स्वाधीन नहीं है । हाँ, यह अवश्य है कि जो दूसरों के अधिकार की रक्षा करता है, उसके प्रति जगत् की उदारता स्वतः होती है । इस दृष्टि से अधिकार देने में ही अधिकार है । अधिकार-लोलुपता तो मानव को राग में आबद्ध तथा क्रोध से आक्रान्त करती है, जो विनाश का मूल है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ १६-१७ (Page No. 16-17)।
निष्काम होते ही निर्वैरता, समता, मुदिता आदि दिव्य गुण स्वतः अभिव्यक्त होते हैं । योग, बोध और प्रेम से विमुख करने में कामना ही हेतु है । निष्कामता से चित्त स्वतः शुद्ध, शान्त तथा स्वस्थ होता है, जिसके होते ही कर्तव्यपरायणता तथा योग की प्राप्ति स्वतः होती है ।
निष्कामता से उदित शान्ति में ही आवश्यक सामर्थ्य की अभिव्यक्ति होती है । असमर्थता ही मानव को पराधीनता में आबद्ध करती है, और आवश्यक सामर्थ्य की उपलब्धि से ही पराधीनता का नाश होता है । इस कारण निष्कामता से प्राप्त शान्ति का सम्पादन प्रत्येक साधक के लिये अनिवार्य है ।
अधिकार लिप्सा से रहित होना :- निष्काम होते ही अपने अधिकार के त्याग का बल साधक में स्वतः आ जाता है । अथवा यों कहो कि अधिकार-लोलुपता में मानव को कामना ही आबद्ध रखती है । मानव की स्वाधीनता दूसरों के अधिकार की रक्षा ही में है, अपने अधिकार को पाने में मानव स्वाधीन नहीं है । हाँ, यह अवश्य है कि जो दूसरों के अधिकार की रक्षा करता है, उसके प्रति जगत् की उदारता स्वतः होती है । इस दृष्टि से अधिकार देने में ही अधिकार है । अधिकार-लोलुपता तो मानव को राग में आबद्ध तथा क्रोध से आक्रान्त करती है, जो विनाश का मूल है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ १६-१७ (Page No. 16-17)।