Thursday 29 September 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 29 September 2011
(आश्विन शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
अपने लिये उपयोगी होना

        जब मिले हुए शरीर पर ही अपना स्वतन्त्र अधिकार नहीं है, तो फिर उसी की जाति का जो संसार है, उस पर अधिकार मानना भूल के अतिरिक्त और हो ही क्या सकता है ? हाँ, अपने पर शरीर और संसार का यह अधिकार अवश्य है कि उसके प्रति निर्मम तथा निष्काम होकर उसके हित-चिन्तक बने रहें, अर्थात् आलस्य, अकर्मण्यता, असंयम आदि से शरीर का अहित न करें और शरीर के द्वारा समाज का अहित न करें । यह तभी सम्भव होगा, जब मानव शरीर आदि वस्तुओं को केवल साधन-सामग्री के रूप में ही स्वीकार करें ।

        सर्व-हितकारी प्रवृति अधिकार-त्याग से ही उदित होती है और सहज निवृति की उपलब्धि भी अधिकार-लोलुपता के नाश से ही सिद्ध होती है । सर्व-हितकारी प्रवृति और सहज निवृति एक ही जीवन के दो पहलू हैं । उदारता और असंगता अधिकार-त्याग की ही देन है ।

        उदारता समस्त विश्व के साथ एकता और असंगता देहातीत जीवन से अभिन्नता प्रदान करने में समर्थ है । इस दृष्टि से अधिकार त्याग की बड़ी महिमा है । अधिकार देकर भी अधिकार पाने की अभिरुचि देह से तादात्म्य उत्पन्न कर देती है, जो समस्त दोषों की भूमि है । इस कारण साधक को शरीर, परिवार, समाज आदि से अपना अधिकार हटा लेना चाहिये ।

        अधिकार हटाने का अर्थ शरीर आदि की उपेक्षा नहीं है, अपितु सभी के प्रति सद्भावना रखते हुए, अपने को अधिकार के भार से मुक्त कर, सभी को अभय करना है । अधिकार के भार से दबा हुआ समाज भयभीत होकर स्वयं अधिकार-लोलुपता में आबद्ध हो जाता है । ज्यों-ज्यों अधिकार-लोलुपता बढती जाती है, त्यों-त्यों कर्तव्य की विस्मृति होती जाती है और अनेक पारस्परिक संघर्ष उत्पन्न हो जाते हैं । इस कारण प्रत्येक साधक को शीघ्रातिशीघ्र अपने को अधिकार-लोलुपता से रहित करना अनिवार्य है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)       
–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ १७-१८ (Page No. 17-18)।