Thursday, 22 September 2011

साधन-निधि

Thursday, 22 September 2011

(आश्विन कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

अपने लिये उपयोगी होना

(गत ब्लॉगसे आगेका)

कुछ साधकों को यह भ होता है कि ममता के बिना शरीर, परिवार, समाज आदि की सेवा कैसे हो सकती है ? इस सम्बन्ध में विचार करने से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि ममता तो साधक को सेवा से विमुख ही करती है । शरीर की ममता परिवार के हित से, परिवार की ममता समाज के हित से, समाज की ममता देश की हित से और देश की ममता विदेश के हित से विमुख कर देती है । सेवा उसे नहीं कहते, जो सभी के लिये हितकर न हो । अतएव यह स्पष्ट ही सिद्ध है कि ममता ने तो साधक को सेवा से विमुख कर स्वार्थ में, असीम से सीमित में, नित्य से अनित्य में, चेतना से जड़ता में ही आबद्ध किया है । अतः यह स्वीकार करना कि ममता के बिना सेवा नहीं हो सकती, भारी भूल है ।

जिस ममता ने अपना ही विकास रोक दिया, भला वह दूसरों के लिये हितकर कैसे हो सकती है ? अर्थात् उससे दूसरों का विकास हो ही नहीं सकता । इतना ही नहीं, ममता जिसमें उत्पन्न होती है और जिसके प्रति होती है, दोनों ही के लिये अहितकर है । अतएव ममता का साधक के जीवन में कोई स्थान ही नहीं है ।

निर्मम होने कि स्वाधीनता का उपयोग न करना और हार मानकर बैठ जाना सभी साधकों के लिये सर्वथा त्याज्य है । यह वैधानिक तथ्य है कि मिली हुई स्वाधीनता का उपयोग अपने ही को करना होगा ।

यह अवश्य है कि कभी-कभी साधक प्रमादवश जो कर सकता है, उसी को करने में अपने को असमर्थ मान लेता है । ऐसी दशा में निर्मम होने कि उत्कट लालसा उसे प्रार्थी बना देती है । वैधानिक प्रार्थना की पूर्ति मंगलमय विधान से अवश्य पूरी होती है ।

अब रही केवल निर्मम होने की तीव्र आवश्यकता अनुभव करना । इतना ही दायित्व यदि साधक पूरा कर डाले, तो निर्मम होना सहज तथा स्वाभाविक हो जायेगा; कारण कि जब साधक वास्तविकता की ओर अग्रसर होता है, तब समस्त सृष्टि और उसके आश्रय तथा प्रकाशक उसे हर्षपूर्वक अपनाते हैं । इस दृष्टि से साधक के जीवन में हार मान लेने अथवा निराश होने के लिये कोई स्थान ही नहीं है ।

अल्प-से-अल्प आयु तथा सामर्थ्य क्यों न रह जाय, वास्तविकता की उत्कट माँग की जागृती में सफलता अनिवार्य है । यह साधक के जीवन की महिमा है, जो उसके रचयिता ने अपनी अहैतुकी कृपा से प्रेरित होकर प्रदान की है । मिली हुई महिमा का आदर करो और उस महा महिमावान को अपना स्वीकार करो, यही सफलता की कुंजी है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे