Friday, 23 September 2011

साधन-निधि

Friday, 23 September 2011

(आश्विन कृष्ण एकादसी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

अपने लिये उपयोगी होना

(गत ब्लॉगसे आगेका)

कामना-रहित होना :- ममता का सर्वांश में अंत होते ही कामनाओं का नाश सुलभ हो जाता है; कारण, कि मिले हुए शरीर और देखे हुए जगत् में जातीय एकता है । जिस धातु से शरीर निर्मित है, उसी धातु से जगत् भी निर्मित है । जब मिला हुआ ही अपना नहीं है, तो फिर प्रतीत होनेवाले जगत् की कामनाओं का साधक के जीवन में कोई स्थान ही नहीं रहता; कारण, कि मिले हुए में अहम्-बुद्धि और मम-बुद्धि स्वीकार करने से ही कामनाओं की उत्पत्ति होती है । किन्तु सभी कामनाओं की पूर्ति नहीं होती ।

यद्यपि कामना-पूर्ति के सुख का भोग नवीन कामनाओं को जन्म देता है और अन्त में कामना आपूर्ति का दुःख ही शेष रहता है इस दृष्टि से कामनाओं की पूर्ति और आपूर्ति दोनों एक ही सिक्के के दो पहलुओं के समान हैं इतना ही नहीं, कामना-पूर्ति का सुख मानव को जड़ता में आबद्ध करता है और कामना-अपूर्ति के दुःख से सजगता आती है यह कैसा अनुपम मंगलकारी विधान है कि जो साधक को जड़ता में आबद्ध रहने ही नहीं देता !

कामना-पूर्ति काल में मानव पराधीन होकर भी सुख का अनुभव करता है, यह कैसा प्रमाद है ? इस प्रमाद का अन्त करने के लिये ही दुःख का प्रादुर्भाव होता है । किन्तु दुःख के प्रभाव को न अपनाकर, कामना-पूर्ति जनित पराधीनता को बनाये रखने कि अभिरुचि, क्या अपने ही द्वारा अपना विनाश करना नहीं है ? अवश्य है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ १३

Be Useful for Self

(Continuance from previous blog)

To be desire free :- Just by ending the worldly attachment in totality, the end of desires become easy; reason being, there is a racial unity between the body we got and the world we see. The composition of the body is same as that of the composition of the world. When the whatever we have received itself is not ours then the desires of the apparent world bear no place in the life of the seeker (sadhak); reason being, the acceptance of perceived ego-intelligence and mine-intelligence in whatever we have is the source of all desires. But all desires never get fulfilled for any body.

Although pleasure of enjoyment in the fulfillment of desires gives birth to the new desires and in the end what remains is the sorrow of unfulfilled desires. By this vision, fulfillment of desires and dissatisfaction of unfulfilled desires are like two faces of the same coin. Not only this, the pleasure of fulfillment of desires puts man into inertia and the sorrow of unfulfilled desires brings man into alertness. How unrivaled beneficial legislation is this, which prevents a seeker from being in the state of inertia.

During the time of fulfillment of desires, man being in dependent state feels the pleasure. How negligence is this? To end this negligence only, the outbreak of sorrow comes in one’s life. But by not accepting the effect of sorrow, the zest of maintaining dependence on fulfillment of desire, is it not self destruction by none other than self only? Certainly this is.

(Reamining in next blog) From Book “Sadhn-nidhi” Page No. 13.