Friday, 7 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 07 October 2011
(आश्विन शुक्ल पापांकुशा एकादशी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)
 
 (गत ब्लॉगसे आगेका)
संत-समागम, भाग-१

वैराग्य क्या है ?
        संसार से सच्ची निराशा आ जाने पर जीवन में मृत्यु का अनुभव हो जाता है, यही वास्तव में वैराग्य है ।

अभ्यास क्या है ?
        अपने को सब ओर (संसार) से हटा लेना ही अभ्यास है ।

अभ्यास से क्या लाभ होता है ?
        जो अपने को सब ओर से हटा लेता है, वह अपने में ही सब कुछ (स्थायी आनन्द) पा लेता है ।

संसार का स्वरूप क्या है ?
(१)    इन्द्रिय-जन्य ज्ञान का सद्भाव होने पर संसार सत् मालूम होता है ।
(२)    बुद्धि-जन्य ज्ञान से संसार असत् मालूम होता है ।
(३)    अनुभव-जन्य ज्ञान से संसार का अभाव हो जाता है । अतः सत्, असत् और अभाव ये संसार के तीन स्वरूप मालूम होते हैं । 

इन्द्रिय-जन्य ज्ञान का सद्भाव क्यों होता है ?
        विषयों का राग मिटने पर अर्थात् विचारपूर्वक वैराग्य होने से बुद्धि-जन्य ज्ञान का सद्भाव होता है । (वैराग्य उसी समय तक जीवित है, जब तक किसी न किसी प्रकार का राग है ।)
        राग समूल मिटने पर वैराग्य अपने आप मिट जाता है । राग और वैराग्य के मिटते ही अनुभव-जन्य ज्ञान का सद्भाव हो जाता है ।
        अनुभव-जन्य ज्ञान, ज्ञान का स्वरूप है और बुद्धि-जन्य ज्ञान व इन्द्रिय-जन्य ज्ञान, ज्ञान का गुण है । अर्थात् इन दोनों का ज्ञान स्वरूप नहीं है, इसलिये घटता बढ़ता है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘संत-समागम, भाग-१’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ १०-११ (Page No. 10-11) ।

Thursday, 6 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 06 October 2011
(आश्विन शुक्ल विजया दशमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)
 
 (गत ब्लॉगसे आगेका)
  संत-समागम, भाग-१

५ जनवरी १९४०
आदर और अनादर तथा सुख-दुःख क्यों होता है ?
कर्ता ने अपने को जिस भावना से बाँध लिया है उस भावना के अनुसार क्रिया करने पर कर्ता उस समुदाय में आदर पाता है और भावना के विपरीत क्रिया करने पर अनादर पाता है । आदर से सुख और अनादर से दुःख अपने आप होता है ।

गुरु और ग्रन्थ की आवश्यकता क्यों होती है ?
        अपने कर्तव्य का यथार्थ ज्ञान करने के लिए गुरु और ग्रन्थ की आवश्यकता होती है ।

क्या गुरु और ग्रन्थ के बिना कर्तव्य का ज्ञान नहीं हो सकता ?
        गुरु और ग्रन्थ के बिना भी कर्तव्य का ज्ञान हो सकता है, यदि कर्ता को कर्तव्य के ज्ञान के लिए सच्ची व्याकुलता उत्पन्न हो जाय । जिसको व्याकुलता नहीं उत्पन्न होती उसको बाहरी सहायता लेनी आवश्यक है ।

व्याकुलता उत्पन्न होने पर कर्तव्य का ज्ञान कैसे होता है ?
        व्याकुलता अग्नि के समान है, अतः वह सब प्रकार के विकारों को जला देती है और हृदय आदि को शुद्ध कर देती है । हृदय के शुद्ध होने पर कर्तव्य का यथार्थ ज्ञान हो जाता है । जिस प्रकार साफ की हुई मिट्टी ही दूरबीन का काँच है जिससे बहुत दूर का दिखाई दे जाता है । (बिना साफ की हुई मिट्टी से नहीं) उसी प्रकार अन्तःकरण आदि के शुद्ध होने से कर्तव्य का ज्ञान दिखाई दे जाता है । ऐसे महापुरुष (विचारशील पुरुष) को गुरु और ग्रन्थ की आवश्यकता नहीं होती ।

कर्तव्य-पालन करने से क्या लाभ होता है ?
        कर्तव्य-पालन करने पर कर्ता अभय हो जाता है अर्थात् बंधन से छूट जाता है और किसी प्रकार का दुःख शेष नहीं रहता, गरीबी सदा के लिए मिट जाती है । “करने” से छूट जाता है, सीमित भाव का अभाव हो जाता है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘संत-समागम, भाग-१’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ ९-१० (Page No. 9-10) ।

Wednesday, 5 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 05 October 2011
(आश्विन शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)
 
संत-समागम, भाग-१
४ जनवरी १९४०
ध्यान किस प्रकार हो सकता है ?
ध्यान करने वाले महानुभावों को यह भली प्रकार जान लेना चाहिये कि वे किसका ध्यान करना चाहते हैं, क्योंकि ध्येय के ज्ञान के बिना ध्यान किसी प्रकार नहीं हो सकता है और प्रेम-पात्र का ज्ञान होने पर ध्यान अपने आप हो जाता है, क्योंकि जिसका ज्ञान नहीं होता उसका ध्यान किसी प्रकार नहीं हो सकता ।

ध्यान का फल ?
        ज्ञान से संसार के बंधन टूट जाते हैं और ध्यान से आनन्द की अनुभूति होती है । बंधन टूटते ही संसार की वासनाओं का त्याग हो जाता है । इससे ज्ञान होने पर ध्यान स्वयं हो जाता है ।

कर्म क्यों होता है ?
        जब तक हृदय में किसी प्रकार की विलासिता जीवित है तब तक ही शुभ तथा अशुभ कर्म में रूचि होती है । विलासिता का अन्त होने पर त्याग के भाव उत्पन्न होते हैं, फिर कर्म में रूचि बिल्कुल नहीं होती और त्याग आ जाने पर हृदय में प्रेम उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि किसी का त्याग ही किसी का प्रेम हो जाता है।

त्याग का फल ?
        त्याग और कर्म में यही भेद है कि त्याग संसार के चढ़ाव (मूल) की ओर और कर्म संसार के बहाव की ओर ले जाता है । जिस प्रकार नदी के चढ़ाव की ओर चलने वाला नदी का अन्त करके नदी के कारण को जान लेता है । उसी प्रकार त्याग करने वाला संसार के कारण को जान लेता है ।

कर्म का फल ?
        जिस प्रकार नदी के बहाव की ओर जाने वाला महासागर में डूबकर बार-बार उसी पानी में चक्कर लगाता है, अर्थात् नदी के कारण को नहीं जान पाता, उसी प्रकार कर्म करने वाला घोर संसार में चक्कर लगाता है, परन्तु संसार के कारण को नहीं जान पाता ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘संत-समागम, भाग-१’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ ८-९ (Page No. 8-9) ।

Tuesday, 4 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 04 October 2011
(आश्विन शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)
 
 (गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्नोत्तरी

प्रश्न – महाराज जी ! ईशाई लोग ईशा की बात क्यों नहीं मानते हैं ?
उत्तर – नकली ईशाई ईशा की चर्चा करेगा और सही ईशाई ईशा की बात मानेगा । यह बात न सिर्फ ईशाईयों के लिये सत्य है; बल्कि हिन्दू, मुसलमान, फारसी, सिक्ख, जैन और बौद्ध आदि सभी के लिये सत्य है ।

प्रश्न – महाराज जी ! भौतिक उन्नति का साधन क्या है ?
उत्तर – योग्यता, परिश्रम, ईमानदारी और उदारता ।

प्रश्न – महाराज जी ! जीवनमुक्त कौन है ?
उत्तर – जो इमानदार है, और ईमानदार वही है जो संसार की किसी भी चीज को अपनी नहीं मानता ।

प्रश्न – जीवनमुक्ति का स्वरूप क्या है ?
उत्तर – इच्छाएँ रहते हुए प्राण चले जाएँ तो मृत्यु हो गयी । फिर जन्म लेना पड़ेगा और प्राण रहते इच्छाएँ समाप्त हो जाएँ, तो मुक्ति हो गयी । जैसे बाजार गए, पर पैसे समाप्त हो गए और जरूरत बनी रही, तो फिर बाजार जाना पड़ेगा । और यदि पैसे रहते जरूरत समाप्त हो जाए, तो बाजार काहे को जाना पड़ेगा ?

प्रश्न – पढ़ाई-लिखाई बढ़ रही है, फिर भी दोष कम क्यों नहीं हो रहे ?
उत्तर – कोई दोष तब करता है, जब अपनी ही बात नहीं मानता। पढ़ाई-लिखाई तो एक प्रकार की योग्यता है । योग्यता जब निज विवेक के अधीन नहीं रहती है, तो बड़े-बड़े अनर्थ कर डालती है ।

प्रश्न – महाराज जी ! क्या भगवत्-प्रेम भी कामी-कामिनी वाले प्रेम की तरह होता है ?
उत्तर – कामी कामिनी को प्रेम नहीं करता । वे एक-दूसरे को नष्ट करते हैं, खा जाते हैं । भगवत्-प्रेम तो प्रेमी और प्रेमास्पद दोनों को आह्लादित करता है ।

प्रश्न – दुःख का आना मानव के पतित अथवा पापी होने का परिचय है क्या ?
उत्तर – दुःख का आना पतित होने का फल नहीं है । दुःख तो सुख-भोग की आसक्ति को मिटाने के लिए आता है ।   

–‘प्रश्नोत्तरी संतवाणी’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ ६-७ (Page No. 6-7)।

Monday, 3 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 03 October 2011
(आश्विन शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)
 
  प्रश्नोत्तरी

प्रश्न – महाराज जी ! शिक्षक का क्या कर्तव्य है ?
उत्तर – शिक्षक का काम है, अपनी योग्यता का सदुपयोग एवं शिक्षार्थी का चरित्र-निर्माण ।

प्रश्न – स्वामी जी ! भगवान हमारी चाह पूरी क्यों नहीं करते ?
उत्तर – चाह तो उन्होंने अपने बाप दशरथ की भी पूरी नहीं की । फिर तुम्हारी कैसे कर दें ? जो सीता ने चाहा, नहीं हुआ । जो कौशल्या ने चाहा, नहीं हुआ । फिर तुम्हारे चाहने से क्या होगा ?

प्रश्न – स्वामी जी ! आपके कथन अनुसार जब दुःख मानव को कुछ सिखाने के लिये आता है, तो फिर बच्चों के जीवन में दुःख क्यों आता है ?
उत्तर– बच्चे प्राणी हैं । प्राणी के जीवन में तो सुख-दुःख का भोग ही होता है । जब वे मानव बनेंगे, तभी न दुःख उन्हें कुछ सिखाएगा ?

प्रश्न – स्वामी जी ! समाज का दुःख कैसे दूर हो सकता है ?
उत्तर – आप अपना दुःख दूर कर सकते हैं । समाज चाहेगा, तो उसका दुःख दूर होगा । कोई बाप अपने बेटे का, कोई पति अपनी पत्नी का दुःख दूर नहीं कर सकता, तो समाज का कैसे कर लेगा? हाँ, इतना आप कर सकते हैं कि अपना दुःख-रहित जीवन समाज के सामने रख सकते हैं, जिसको देखकर समाज के मन में दुःख दूर करने की रूचि पैदा हो सकती है ।

प्रश्न – महाराज जी ! सृष्टि की सेवा करनेवाला प्रभु को कैसे प्यारा लगता है ?
उत्तर – जैसे तुम्हारे लडके की सेवा करनेवाला तुम्हे प्यारा लगता है ।

प्रश्न – स्वामी जी ! भगवान् का दर्शन कैसे हो सकता है ?
उत्तर – भगवत्-प्रेम का महत्व है, भगवत्-दर्शन का कोई महत्व नहीं । भगवान् रोज दिखें और प्यारे न लगें, तो तुम्हारा विकास नहीं होगा । भगवत्-विश्वास, भगवत्-सम्बन्ध और भगवत्-प्रेम का महत्व है ।

प्रश्न – स्वाधीनता का स्वरूप क्या है ?
उत्तर – स्वाधीनता का अर्थ है, अपने में सन्तुष्ट होना, न कि किसी वस्तु या किसी परिस्थिति में आबद्ध होना ।  

(शेष आगेके ब्लॉगमें)       
–‘प्रश्नोत्तरी संतवाणी’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ ५-६ (Page No. 5-6)।

Sunday, 2 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 02 October 2011
(आश्विन शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०६८, रविवार)
 
 (गत ब्लॉगसे आगेका)
  अधिकार लिप्सा से रहित होना

        स्वाधीनता वर्तमान की माँग है और उसे साधक स्वाधीनतापूर्वक ही प्राप्त कर सकता है । ज्यों-ज्यों स्वाधीनता की माँग सबल तथा स्थायी होती जाती है, त्यों-त्यों पराधीनता के नाश करने की सामर्थ्य साधक को मंगलमय विधान से स्वतः प्राप्त होती है । पराधीनता सहन करने के समान मानव की और कोई भारी भूल नहीं है ।

        लेशमात्र की पराधीनता भी मानव को दीन-हीन तथा मलिन बना देती है, यह अनुभव सिद्ध तथ्य है । अतः स्वाधीनता प्राप्त करने के लिये एवं मिली हुई स्वाधीनता सुरक्षित रखने के लिये साधक को सजगतापूर्वक देहादि समस्त दृश्य से अपना अधिकार हटा लेना चाहिये ।

        दृश्य से अधिकार हटाते ही साधक की प्रगति उस ओर स्वतः हो जाती है, जो समस्त दृश्य का आश्रय तथा प्रकाशक है । जगत् के उद्गम की खोज भी वही कर सकता है, जो सब ओर से विमुख होकर, अधिकार-लालसा से रहित, अपने को अपनी माँग से अभिन्न करने में समर्थ हो जाय । जब साधक अपने में अपनी माँग से भिन्न कुछ नहीं पाता, तब करुणामय की करुणा माँग को पूरा कर देती है, यह निर्विवाद सत्य है ।

        यद्यपि मानवमात्र में उसकी माँग बीज रूप से विद्यमान है, परन्तु भूल से उत्पन्न हुई अधिकार-लोलुपता ने उसे पूर्ण रूप से जाग्रत नहीं होने दिया । गम्भीरतापूर्वक विचार करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि समस्त विश्व मिलकर भी साधक की वास्तविक माँग को पूरा नहीं कर सकता । इस दृष्टि से साधक का मूल्य सृष्टि से अधिक है । ऐसे मूल्यवान जीवन को पाकर अधिकार-लोलुपता के कारण मानव अपनी दुर्दशा आप कर डाले, इससे बढ़कर शोचनीय दशा क्या हो सकती है ?

        इसका अर्थ यह नहीं है कि मानव निराश होकर, हार मानकर बैठ जाय । भूतकाल चाहे कैसा ही क्यों न बीता हो, यदि साधक सजगतापूर्वक अपने लिये उपयोगी होने का प्रयास करे, तो सफलता अनिवार्य है । अपने अधिकार के त्याग में पराधीनता तथा असमर्थता की गंध भी नहीं है ।

        सुख-लोलुपता की दासता ने बेचारे मानव को अधिकार का दास बना दिया है । पराधीनता-जनित वेदना जब सुख-लोलुपता को खा लेती है, तब साधक स्वाधीनतापूर्वक अधिकार- लोलुपता से रहित, कर्तव्यनिष्ठ हो, कृतकृत्य हो जाता है, अर्थात् फिर उसे अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता ।

–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ २०-२१ (Page No. 20-21) ।

Saturday, 1 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 01 October 2011
(आश्विन शुक्ल चतुर्थी-पंचमी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

 (गत ब्लॉगसे आगेका)
  अधिकार लिप्सा से रहित होना

        अपना अधिकार न मानने पर भी साधक के प्रति समस्त विश्व की उदारता सतत रहती है । पर इसका अर्थ यह नहीं है कि साधक अपने प्रति दूसरों की उदारता बनाये रखनेके लिये अपने अधिकार का त्याग करे ।

        अधिकार का त्याग किये बिना स्वाधीनता के साम्राज्य में साधक का प्रवेश ही नहीं होता और स्वाधीनता के बिना जगत् के प्रति उदारता तथा जगत्-पति के प्रति प्रेम का प्रादुर्भाव होता ही नहीं, जो वास्तविक जीवन है ।

        यह सभी को मान्य होगा कि उदारता, स्वाधीनता एवं प्रेम की प्राप्ति में ही मानव-जीवन की पूर्णता है । इस दृष्टि से अधिकार-लोलुपता का मानव के जीवन में कोई स्थान ही नहीं है। इतना ही नहीं, बलपूर्वक अथवा माँगने से अधिकार मिलता भी नहीं है । क्या कोई सबल-से-सबल भी अपने प्रति बलपूर्वक प्यार करा सकता है ? कदापि नहीं । सबल निर्बल के शरीरादि वस्तुओं का नाश कर सकता है, किन्तु अपने प्रति श्रद्धा, विश्वास तथा आत्मीयता बलपूर्वक नहीं प्राप्त कर सकता ।

        अधिकार देने की वस्तु है, माँगने की नहीं । यदि मानव-समाज अधिकार देने की सद्भावना को अपना ले, तो सभी के अधिकार सुरक्षित हो जाएँ । अधिकार देने की भावना तभी विभु हो सकती है, जब साधक अपने अधिकार को त्याग, दूसरों के अधिकार की रक्षा करता रहे । साधक का जीवन साधननिष्ठ होने पर स्वतः विभु हो जाता है । पर यह रहस्य तभी स्पष्ट होता है, जब साधक अपने लिये उपयोगी हो जाय । पराधीनता के रहते हुए अपने लिये उपयोगी होना सम्भव नहीं है । स्वाधीनता एकमात्र अपने अधिकार के त्याग और दूसरों के अधिकार के देने ही में है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)       
–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ १९-२० (Page No. 19-20) ।