Wednesday, 5 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 05 October 2011
(आश्विन शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)
 
संत-समागम, भाग-१
४ जनवरी १९४०
ध्यान किस प्रकार हो सकता है ?
ध्यान करने वाले महानुभावों को यह भली प्रकार जान लेना चाहिये कि वे किसका ध्यान करना चाहते हैं, क्योंकि ध्येय के ज्ञान के बिना ध्यान किसी प्रकार नहीं हो सकता है और प्रेम-पात्र का ज्ञान होने पर ध्यान अपने आप हो जाता है, क्योंकि जिसका ज्ञान नहीं होता उसका ध्यान किसी प्रकार नहीं हो सकता ।

ध्यान का फल ?
        ज्ञान से संसार के बंधन टूट जाते हैं और ध्यान से आनन्द की अनुभूति होती है । बंधन टूटते ही संसार की वासनाओं का त्याग हो जाता है । इससे ज्ञान होने पर ध्यान स्वयं हो जाता है ।

कर्म क्यों होता है ?
        जब तक हृदय में किसी प्रकार की विलासिता जीवित है तब तक ही शुभ तथा अशुभ कर्म में रूचि होती है । विलासिता का अन्त होने पर त्याग के भाव उत्पन्न होते हैं, फिर कर्म में रूचि बिल्कुल नहीं होती और त्याग आ जाने पर हृदय में प्रेम उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि किसी का त्याग ही किसी का प्रेम हो जाता है।

त्याग का फल ?
        त्याग और कर्म में यही भेद है कि त्याग संसार के चढ़ाव (मूल) की ओर और कर्म संसार के बहाव की ओर ले जाता है । जिस प्रकार नदी के चढ़ाव की ओर चलने वाला नदी का अन्त करके नदी के कारण को जान लेता है । उसी प्रकार त्याग करने वाला संसार के कारण को जान लेता है ।

कर्म का फल ?
        जिस प्रकार नदी के बहाव की ओर जाने वाला महासागर में डूबकर बार-बार उसी पानी में चक्कर लगाता है, अर्थात् नदी के कारण को नहीं जान पाता, उसी प्रकार कर्म करने वाला घोर संसार में चक्कर लगाता है, परन्तु संसार के कारण को नहीं जान पाता ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘संत-समागम, भाग-१’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ ८-९ (Page No. 8-9) ।