Thursday, 6 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 06 October 2011
(आश्विन शुक्ल विजया दशमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)
 
 (गत ब्लॉगसे आगेका)
  संत-समागम, भाग-१

५ जनवरी १९४०
आदर और अनादर तथा सुख-दुःख क्यों होता है ?
कर्ता ने अपने को जिस भावना से बाँध लिया है उस भावना के अनुसार क्रिया करने पर कर्ता उस समुदाय में आदर पाता है और भावना के विपरीत क्रिया करने पर अनादर पाता है । आदर से सुख और अनादर से दुःख अपने आप होता है ।

गुरु और ग्रन्थ की आवश्यकता क्यों होती है ?
        अपने कर्तव्य का यथार्थ ज्ञान करने के लिए गुरु और ग्रन्थ की आवश्यकता होती है ।

क्या गुरु और ग्रन्थ के बिना कर्तव्य का ज्ञान नहीं हो सकता ?
        गुरु और ग्रन्थ के बिना भी कर्तव्य का ज्ञान हो सकता है, यदि कर्ता को कर्तव्य के ज्ञान के लिए सच्ची व्याकुलता उत्पन्न हो जाय । जिसको व्याकुलता नहीं उत्पन्न होती उसको बाहरी सहायता लेनी आवश्यक है ।

व्याकुलता उत्पन्न होने पर कर्तव्य का ज्ञान कैसे होता है ?
        व्याकुलता अग्नि के समान है, अतः वह सब प्रकार के विकारों को जला देती है और हृदय आदि को शुद्ध कर देती है । हृदय के शुद्ध होने पर कर्तव्य का यथार्थ ज्ञान हो जाता है । जिस प्रकार साफ की हुई मिट्टी ही दूरबीन का काँच है जिससे बहुत दूर का दिखाई दे जाता है । (बिना साफ की हुई मिट्टी से नहीं) उसी प्रकार अन्तःकरण आदि के शुद्ध होने से कर्तव्य का ज्ञान दिखाई दे जाता है । ऐसे महापुरुष (विचारशील पुरुष) को गुरु और ग्रन्थ की आवश्यकता नहीं होती ।

कर्तव्य-पालन करने से क्या लाभ होता है ?
        कर्तव्य-पालन करने पर कर्ता अभय हो जाता है अर्थात् बंधन से छूट जाता है और किसी प्रकार का दुःख शेष नहीं रहता, गरीबी सदा के लिए मिट जाती है । “करने” से छूट जाता है, सीमित भाव का अभाव हो जाता है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘संत-समागम, भाग-१’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ ९-१० (Page No. 9-10) ।