Tuesday, 4 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 04 October 2011
(आश्विन शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)
 
 (गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्नोत्तरी

प्रश्न – महाराज जी ! ईशाई लोग ईशा की बात क्यों नहीं मानते हैं ?
उत्तर – नकली ईशाई ईशा की चर्चा करेगा और सही ईशाई ईशा की बात मानेगा । यह बात न सिर्फ ईशाईयों के लिये सत्य है; बल्कि हिन्दू, मुसलमान, फारसी, सिक्ख, जैन और बौद्ध आदि सभी के लिये सत्य है ।

प्रश्न – महाराज जी ! भौतिक उन्नति का साधन क्या है ?
उत्तर – योग्यता, परिश्रम, ईमानदारी और उदारता ।

प्रश्न – महाराज जी ! जीवनमुक्त कौन है ?
उत्तर – जो इमानदार है, और ईमानदार वही है जो संसार की किसी भी चीज को अपनी नहीं मानता ।

प्रश्न – जीवनमुक्ति का स्वरूप क्या है ?
उत्तर – इच्छाएँ रहते हुए प्राण चले जाएँ तो मृत्यु हो गयी । फिर जन्म लेना पड़ेगा और प्राण रहते इच्छाएँ समाप्त हो जाएँ, तो मुक्ति हो गयी । जैसे बाजार गए, पर पैसे समाप्त हो गए और जरूरत बनी रही, तो फिर बाजार जाना पड़ेगा । और यदि पैसे रहते जरूरत समाप्त हो जाए, तो बाजार काहे को जाना पड़ेगा ?

प्रश्न – पढ़ाई-लिखाई बढ़ रही है, फिर भी दोष कम क्यों नहीं हो रहे ?
उत्तर – कोई दोष तब करता है, जब अपनी ही बात नहीं मानता। पढ़ाई-लिखाई तो एक प्रकार की योग्यता है । योग्यता जब निज विवेक के अधीन नहीं रहती है, तो बड़े-बड़े अनर्थ कर डालती है ।

प्रश्न – महाराज जी ! क्या भगवत्-प्रेम भी कामी-कामिनी वाले प्रेम की तरह होता है ?
उत्तर – कामी कामिनी को प्रेम नहीं करता । वे एक-दूसरे को नष्ट करते हैं, खा जाते हैं । भगवत्-प्रेम तो प्रेमी और प्रेमास्पद दोनों को आह्लादित करता है ।

प्रश्न – दुःख का आना मानव के पतित अथवा पापी होने का परिचय है क्या ?
उत्तर – दुःख का आना पतित होने का फल नहीं है । दुःख तो सुख-भोग की आसक्ति को मिटाने के लिए आता है ।   

–‘प्रश्नोत्तरी संतवाणी’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ ६-७ (Page No. 6-7)।