Monday, 03 October 2011
(आश्विन शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)
प्रश्नोत्तरी
प्रश्न – महाराज जी ! शिक्षक का क्या कर्तव्य है ?
उत्तर – शिक्षक का काम है, अपनी योग्यता का सदुपयोग एवं शिक्षार्थी का चरित्र-निर्माण ।
प्रश्न – स्वामी जी ! भगवान हमारी चाह पूरी क्यों नहीं करते ?
उत्तर – चाह तो उन्होंने अपने बाप दशरथ की भी पूरी नहीं की । फिर तुम्हारी कैसे कर दें ? जो सीता ने चाहा, नहीं हुआ । जो कौशल्या ने चाहा, नहीं हुआ । फिर तुम्हारे चाहने से क्या होगा ?
प्रश्न – स्वामी जी ! आपके कथन अनुसार जब दुःख मानव को कुछ सिखाने के लिये आता है, तो फिर बच्चों के जीवन में दुःख क्यों आता है ?
उत्तर– बच्चे प्राणी हैं । प्राणी के जीवन में तो सुख-दुःख का भोग ही होता है । जब वे मानव बनेंगे, तभी न दुःख उन्हें कुछ सिखाएगा ?
प्रश्न – स्वामी जी ! समाज का दुःख कैसे दूर हो सकता है ?
उत्तर – आप अपना दुःख दूर कर सकते हैं । समाज चाहेगा, तो उसका दुःख दूर होगा । कोई बाप अपने बेटे का, कोई पति अपनी पत्नी का दुःख दूर नहीं कर सकता, तो समाज का कैसे कर लेगा? हाँ, इतना आप कर सकते हैं कि अपना दुःख-रहित जीवन समाज के सामने रख सकते हैं, जिसको देखकर समाज के मन में दुःख दूर करने की रूचि पैदा हो सकती है ।
प्रश्न – महाराज जी ! सृष्टि की सेवा करनेवाला प्रभु को कैसे प्यारा लगता है ?
उत्तर – जैसे तुम्हारे लडके की सेवा करनेवाला तुम्हे प्यारा लगता है ।
प्रश्न – स्वामी जी ! भगवान् का दर्शन कैसे हो सकता है ?
उत्तर – भगवत्-प्रेम का महत्व है, भगवत्-दर्शन का कोई महत्व नहीं । भगवान् रोज दिखें और प्यारे न लगें, तो तुम्हारा विकास नहीं होगा । भगवत्-विश्वास, भगवत्-सम्बन्ध और भगवत्-प्रेम का महत्व है ।
प्रश्न – स्वाधीनता का स्वरूप क्या है ?
उत्तर – स्वाधीनता का अर्थ है, अपने में सन्तुष्ट होना, न कि किसी वस्तु या किसी परिस्थिति में आबद्ध होना ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘प्रश्नोत्तरी संतवाणी’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ ५-६ (Page No. 5-6)।
उत्तर – शिक्षक का काम है, अपनी योग्यता का सदुपयोग एवं शिक्षार्थी का चरित्र-निर्माण ।
प्रश्न – स्वामी जी ! भगवान हमारी चाह पूरी क्यों नहीं करते ?
उत्तर – चाह तो उन्होंने अपने बाप दशरथ की भी पूरी नहीं की । फिर तुम्हारी कैसे कर दें ? जो सीता ने चाहा, नहीं हुआ । जो कौशल्या ने चाहा, नहीं हुआ । फिर तुम्हारे चाहने से क्या होगा ?
प्रश्न – स्वामी जी ! आपके कथन अनुसार जब दुःख मानव को कुछ सिखाने के लिये आता है, तो फिर बच्चों के जीवन में दुःख क्यों आता है ?
उत्तर– बच्चे प्राणी हैं । प्राणी के जीवन में तो सुख-दुःख का भोग ही होता है । जब वे मानव बनेंगे, तभी न दुःख उन्हें कुछ सिखाएगा ?
प्रश्न – स्वामी जी ! समाज का दुःख कैसे दूर हो सकता है ?
उत्तर – आप अपना दुःख दूर कर सकते हैं । समाज चाहेगा, तो उसका दुःख दूर होगा । कोई बाप अपने बेटे का, कोई पति अपनी पत्नी का दुःख दूर नहीं कर सकता, तो समाज का कैसे कर लेगा? हाँ, इतना आप कर सकते हैं कि अपना दुःख-रहित जीवन समाज के सामने रख सकते हैं, जिसको देखकर समाज के मन में दुःख दूर करने की रूचि पैदा हो सकती है ।
प्रश्न – महाराज जी ! सृष्टि की सेवा करनेवाला प्रभु को कैसे प्यारा लगता है ?
उत्तर – जैसे तुम्हारे लडके की सेवा करनेवाला तुम्हे प्यारा लगता है ।
प्रश्न – स्वामी जी ! भगवान् का दर्शन कैसे हो सकता है ?
उत्तर – भगवत्-प्रेम का महत्व है, भगवत्-दर्शन का कोई महत्व नहीं । भगवान् रोज दिखें और प्यारे न लगें, तो तुम्हारा विकास नहीं होगा । भगवत्-विश्वास, भगवत्-सम्बन्ध और भगवत्-प्रेम का महत्व है ।
प्रश्न – स्वाधीनता का स्वरूप क्या है ?
उत्तर – स्वाधीनता का अर्थ है, अपने में सन्तुष्ट होना, न कि किसी वस्तु या किसी परिस्थिति में आबद्ध होना ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘प्रश्नोत्तरी संतवाणी’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ ५-६ (Page No. 5-6)।