Sunday, 02 October 2011
(आश्विन शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०६८, रविवार)
(गत ब्लॉगसे आगेका)
अधिकार लिप्सा से रहित होना
स्वाधीनता वर्तमान की माँग है और उसे साधक स्वाधीनतापूर्वक ही प्राप्त कर सकता है । ज्यों-ज्यों स्वाधीनता की माँग सबल तथा स्थायी होती जाती है, त्यों-त्यों पराधीनता के नाश करने की सामर्थ्य साधक को मंगलमय विधान से स्वतः प्राप्त होती है । पराधीनता सहन करने के समान मानव की और कोई भारी भूल नहीं है ।
लेशमात्र की पराधीनता भी मानव को दीन-हीन तथा मलिन बना देती है, यह अनुभव सिद्ध तथ्य है । अतः स्वाधीनता प्राप्त करने के लिये एवं मिली हुई स्वाधीनता सुरक्षित रखने के लिये साधक को सजगतापूर्वक देहादि समस्त दृश्य से अपना अधिकार हटा लेना चाहिये ।
दृश्य से अधिकार हटाते ही साधक की प्रगति उस ओर स्वतः हो जाती है, जो समस्त दृश्य का आश्रय तथा प्रकाशक है । जगत् के उद्गम की खोज भी वही कर सकता है, जो सब ओर से विमुख होकर, अधिकार-लालसा से रहित, अपने को अपनी माँग से अभिन्न करने में समर्थ हो जाय । जब साधक अपने में अपनी माँग से भिन्न कुछ नहीं पाता, तब करुणामय की करुणा माँग को पूरा कर देती है, यह निर्विवाद सत्य है ।
यद्यपि मानवमात्र में उसकी माँग बीज रूप से विद्यमान है, परन्तु भूल से उत्पन्न हुई अधिकार-लोलुपता ने उसे पूर्ण रूप से जाग्रत नहीं होने दिया । गम्भीरतापूर्वक विचार करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि समस्त विश्व मिलकर भी साधक की वास्तविक माँग को पूरा नहीं कर सकता । इस दृष्टि से साधक का मूल्य सृष्टि से अधिक है । ऐसे मूल्यवान जीवन को पाकर अधिकार-लोलुपता के कारण मानव अपनी दुर्दशा आप कर डाले, इससे बढ़कर शोचनीय दशा क्या हो सकती है ?
इसका अर्थ यह नहीं है कि मानव निराश होकर, हार मानकर बैठ जाय । भूतकाल चाहे कैसा ही क्यों न बीता हो, यदि साधक सजगतापूर्वक अपने लिये उपयोगी होने का प्रयास करे, तो सफलता अनिवार्य है । अपने अधिकार के त्याग में पराधीनता तथा असमर्थता की गंध भी नहीं है ।
सुख-लोलुपता की दासता ने बेचारे मानव को अधिकार का दास बना दिया है । पराधीनता-जनित वेदना जब सुख-लोलुपता को खा लेती है, तब साधक स्वाधीनतापूर्वक अधिकार- लोलुपता से रहित, कर्तव्यनिष्ठ हो, कृतकृत्य हो जाता है, अर्थात् फिर उसे अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता ।
–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ २०-२१ (Page No. 20-21) ।
लेशमात्र की पराधीनता भी मानव को दीन-हीन तथा मलिन बना देती है, यह अनुभव सिद्ध तथ्य है । अतः स्वाधीनता प्राप्त करने के लिये एवं मिली हुई स्वाधीनता सुरक्षित रखने के लिये साधक को सजगतापूर्वक देहादि समस्त दृश्य से अपना अधिकार हटा लेना चाहिये ।
दृश्य से अधिकार हटाते ही साधक की प्रगति उस ओर स्वतः हो जाती है, जो समस्त दृश्य का आश्रय तथा प्रकाशक है । जगत् के उद्गम की खोज भी वही कर सकता है, जो सब ओर से विमुख होकर, अधिकार-लालसा से रहित, अपने को अपनी माँग से अभिन्न करने में समर्थ हो जाय । जब साधक अपने में अपनी माँग से भिन्न कुछ नहीं पाता, तब करुणामय की करुणा माँग को पूरा कर देती है, यह निर्विवाद सत्य है ।
यद्यपि मानवमात्र में उसकी माँग बीज रूप से विद्यमान है, परन्तु भूल से उत्पन्न हुई अधिकार-लोलुपता ने उसे पूर्ण रूप से जाग्रत नहीं होने दिया । गम्भीरतापूर्वक विचार करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि समस्त विश्व मिलकर भी साधक की वास्तविक माँग को पूरा नहीं कर सकता । इस दृष्टि से साधक का मूल्य सृष्टि से अधिक है । ऐसे मूल्यवान जीवन को पाकर अधिकार-लोलुपता के कारण मानव अपनी दुर्दशा आप कर डाले, इससे बढ़कर शोचनीय दशा क्या हो सकती है ?
इसका अर्थ यह नहीं है कि मानव निराश होकर, हार मानकर बैठ जाय । भूतकाल चाहे कैसा ही क्यों न बीता हो, यदि साधक सजगतापूर्वक अपने लिये उपयोगी होने का प्रयास करे, तो सफलता अनिवार्य है । अपने अधिकार के त्याग में पराधीनता तथा असमर्थता की गंध भी नहीं है ।
सुख-लोलुपता की दासता ने बेचारे मानव को अधिकार का दास बना दिया है । पराधीनता-जनित वेदना जब सुख-लोलुपता को खा लेती है, तब साधक स्वाधीनतापूर्वक अधिकार- लोलुपता से रहित, कर्तव्यनिष्ठ हो, कृतकृत्य हो जाता है, अर्थात् फिर उसे अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता ।
–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ २०-२१ (Page No. 20-21) ।