Saturday, 01 October 2011
अधिकार लिप्सा से रहित होना
अपना अधिकार न मानने पर भी साधक के प्रति समस्त विश्व की उदारता सतत रहती है । पर इसका अर्थ यह नहीं है कि साधक अपने प्रति दूसरों की उदारता बनाये रखनेके लिये अपने अधिकार का त्याग करे ।
अधिकार का त्याग किये बिना स्वाधीनता के साम्राज्य में साधक का प्रवेश ही नहीं होता और स्वाधीनता के बिना जगत् के प्रति उदारता तथा जगत्-पति के प्रति प्रेम का प्रादुर्भाव होता ही नहीं, जो वास्तविक जीवन है ।
यह सभी को मान्य होगा कि उदारता, स्वाधीनता एवं प्रेम की प्राप्ति में ही मानव-जीवन की पूर्णता है । इस दृष्टि से अधिकार-लोलुपता का मानव के जीवन में कोई स्थान ही नहीं है। इतना ही नहीं, बलपूर्वक अथवा माँगने से अधिकार मिलता भी नहीं है । क्या कोई सबल-से-सबल भी अपने प्रति बलपूर्वक प्यार करा सकता है ? कदापि नहीं । सबल निर्बल के शरीरादि वस्तुओं का नाश कर सकता है, किन्तु अपने प्रति श्रद्धा, विश्वास तथा आत्मीयता बलपूर्वक नहीं प्राप्त कर सकता ।
अधिकार देने की वस्तु है, माँगने की नहीं । यदि मानव-समाज अधिकार देने की सद्भावना को अपना ले, तो सभी के अधिकार सुरक्षित हो जाएँ । अधिकार देने की भावना तभी विभु हो सकती है, जब साधक अपने अधिकार को त्याग, दूसरों के अधिकार की रक्षा करता रहे । साधक का जीवन साधननिष्ठ होने पर स्वतः विभु हो जाता है । पर यह रहस्य तभी स्पष्ट होता है, जब साधक अपने लिये उपयोगी हो जाय । पराधीनता के रहते हुए अपने लिये उपयोगी होना सम्भव नहीं है । स्वाधीनता एकमात्र अपने अधिकार के त्याग और दूसरों के अधिकार के देने ही में है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘साधन-निधि’ पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ १९-२० (Page No. 19-20) ।