Friday, 14 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 14 October 2011
(कर्तिक कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)


प्रश्नोत्तरी

प्रश्न - महाराज जी ! धर्मात्मा कौन होता है ?
उत्तर - जिसकी समाज को आवश्यकता हो जाय ।

प्रश्न - व्यर्थ-चिन्तन से कैसे बचा जाय ?
उत्तर - व्यर्थ-चिन्तन भुक्त-अभुक्त का प्रभाव है । आप उससे असहयोग करें । न उसे दबाएं, न उससे सुख लें, न भयभीत हों और न तादात्म्य रखें । तो व्यर्थ-चिन्तन प्रकट होकर नाश हो जाएगा ।

प्रश्न - स्वामी जी ! हम क्या करें ?
उत्तर - सेवा, त्याग और आस्था । सेवा का अर्थ है उदारता, सुखियों को देखकर प्रसन्न होना और दुखियों को देखकर करुणित होना । त्याग का अर्थ है कि मिला हुआ अपना नहीं है | जिससे जातीय तथा स्वरूप की एकता नहीं है, उसकी कामना का त्याग । प्राप्त में ममता नहीं और अप्राप्त की कामना नहीं । प्रभु में आस्था और विश्वास करो ।

प्रश्न - स्वामी जी ! आज तक तो मेरी आँखें बिल्कुल ठीक रही हैं । परन्तु अब 75 वर्ष के बाद रोशनी कम होने पर अभाव खटकने लगता है ।
उत्तर - आँख तो भैया पहले भी अपनी नहीं थी । परन्तु इसका पता अभी चला है । गहरी नींद में हर रोज आँखों के रहते हुए भी अन्धे हो जाते हैं । इस पर विचार ही नहीं किया ।

प्रश्न - क्या संकल्प-पूर्ति का कोई स्थान जीवन में है ?
उत्तर - दूसरों की संकल्प-पूर्ति का है, अपनी संकल्प-पूर्ति का नहीं ।

प्रश्न - भक्ति कैसे हो ?
उत्तर - संसार को अपने लिए अस्वीकार करने और केवल भगवान् को ही अपना मानने से भक्ति-भाव की अभिव्यक्ति होती है ।

प्रश्न - स्वप्न का क्या कोई अस्तित्व है ?
उत्तर - स्वप्न तो एक अवस्था है । अवस्था का कोई अस्तित्व नहीं होता ।

प्रश्न - दुःख विधान का फल है क्या ?
उत्तर - दुःख तो सुख की दासता मिटाने के लिए विधान से आता है । दुःख हमारी भूल का परिणाम है ।

(शेष आगेके ब्लागमें)
-'प्रश्नोत्तरी' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ ७-८ (Page No. 7-8) ।

Thursday, 13 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 13 October 2011
(कर्तिक कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)
 
(गत ब्लागसे आगेका)
 हम कैसे जी रहें हैं, कैसे जीना चाहिये :

        ज्ञान की अन्तिम परिणति है - निज-स्वरूप से अभिन्न हो जाना । जिसने अपने को जाना, उसने सब कुछ जान लिया । जिसने मरकर जीना सीख लिया, वह अमर हो गया । उसका लोक-परलोक सब कुछ उसी में समा गया । स्वामी रामतीर्थ ने मस्त होकर कहा था - "राम मुझ में, मैं राम में हूँ" । यह उनकी स्वानुभूति है ।

        वह आज भी जन-जीवन में गूंज रही है । युग:युगान्त तक गूंजती रहेगी । यह जीवन का सत्य है । यह अमरत्व है । इससे अभिन्न होने की कला जीवन की कला है । उससे भिन्न प्रकार का जीना जिन्दगी नहीं, मौत का ही रूपान्तर है । मानव-सेवा-संघ ने मानव-मात्र को अमरपद का जन्मजात अधिकारी माना है ।
 
         जो सत्य और शाश्वत है, उसका एक अविभाज्य पहलू है - मधुर। जो सत्य है, वह शाश्वत है, वही मधुर भी है । हम सबकी रचना इन्हीं मूलतत्वों से हुई है । इसलिये हममें जहाँ सत्य की जिज्ञासा है, वहाँ प्रियता की लालसा भी है । लेखिका को स्वयं ही अपने निजी जीवन में ऐसे दीन-हीन क्षणों का अनुभव हुआ है कि जिनमें हृदय के अंतर्तम से यही करुण-कराह उठती थी :-

        'हे मेरे रचयिता ! लम्बी नीरस और शुष्क अवधि के बदले मुझे क्षणभर का रसपूर्ण जीवन दे दो । ज्ञान के प्रकाश में प्रेम का अनन्त सागर लहराता रहे !'

        रसमय जीवन ही सत्य और शाश्वत जीवन है । यही जीवन है । इसकी उपलब्धि की कला ही जीवन की सर्वोतम कला है ।

-'पथ प्रदीप' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ ५-६ (Page No. 5-6) ।

Wednesday, 12 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 12 October 2011
(आश्विन पूर्णिमा, वि.सं.-२०६८, बुधवार)
 
(गत ब्लागसे आगेका)
हम कैसे जी रहें हैं, कैसे जीना चाहिये :

        अपने को कैसे जानें ? श्रम-रहित होकर । मैं देह नहीं हूँ, देह मेरी नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिये, मुझे कुछ नहीं करना है - विवेक के प्रकाश में विवेचन के आधार पर ऐसा अनुभव किया जाय और उसी के अनुरूप निर्णय लिया जाय तो विश्राम मिलेगा । शरीरों से असंगता प्राप्त होगी । असंगता की शान्ति में जीवनी-शक्ति स्वतः अपने अविनाशी उद्गम की ओर प्रवाहित हो जाती है । अविनाशी से अविनाशी योग हो जाता है । तत्व-बोध हो जाता है । अभाव का पूर्ण अभाव हो जाता है ।

        सन्त-वाणी में मैंने सुना है कि इसे निजानन्द कहते हैं । बड़ा भारी आनन्द होता है । हम जिस स्तर पर खड़े हैं, वहाँ से उस आनन्द का अनुमान नहीं कर सकते । महर्षि रमण जी को असंगता का आनन्द प्राप्त हुआ था, तो वे कई महीने उसी मस्ती में पड़े रहे । महात्मा बुद्ध को निर्वाण का आनन्द प्राप्त हुआ था, तो वे भी बहुत दिनों तक उसी मस्ती में जंगलों में घूमते ही रहे । जन्म-जन्मान्तर का बंधा हुआ, थका हुआ, तापित, पीड़ित मानव जब विश्राम पाता है, तो उसके आनन्द का क्या कहना !

          अज्ञान का घना अंधकार यकायक जब ज्ञान के प्रकाश से सदा के लिए नष्ट होता है और साधक का सीमित अहं गल कर निज-स्वरूप में समाहित हो जाता है, तो केवल आनन्द-ही-आनन्द रह जाता है । जिसको सम्भाल न सकने पर साधक स्वयं आनन्द-स्वरूप हो जाता है।

(शेष आगेके ब्लागमें)
-'पथ प्रदीप' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ ४-५ (Page No. 4-5) ।

Tuesday, 11 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 11 October 2011
(आश्विन शरद् पूर्णिमा, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
हम कैसे जी रहें हैं, कैसे जीना चाहिये :
        हमने भूगोल और खगोल का बड़ा अध्ययन किया, परन्तु अपने को ही नहीं जाना, इसलिये निःसन्देह नहीं हो सके, क्योंकि जब हम अपने से भिन्न किसी को जानने का प्रयास करते हैं, तो हमें शरीरों का सहारा लेना पड़ता है; इन्द्रिय-दृष्टि एवं बुद्धि-दृष्टि से ही देखना पड़ता है । ये स्वयं ही सीमित हैं, अनेक प्रतिबन्धों से परिच्छिन्न किये हुये हैं । इनकी पृष्ठभूमि पक्षपातपूर्ण है । इनका निर्णय सत्य नहीं हो सकता ।

        अतः इनके आधार पर प्राप्त की हुई जानकारी निःसन्देह नहीं हो सकती । अब तक यही होता रहा है । जिन्होंने 'स्व' में प्रतिष्ठित होकर अपने को जान लिया, वे निःसन्देह हो गए । उन्होंने सारी सृष्टि का रहस्य पा लिया । परन्तु हम इन्द्रिय-दृष्टि एवं बुद्धि-दृष्टि को सत्य मानकर बार-बार धोखा खाते रहते हैं । असत्य के माध्यम से सत्य नहीं जाना जा सकता । इनके माध्यम से जो जानने में आता है, उसका उपयोग-मात्र हम कर सकते हैं । प्यास और जल दिखाई दे तो जल ले, प्यास बुझा लें । बस, इतना ही कर सकते हैं ।

        इन दृष्टियों से जो सत्य और सुन्दर भासित होता है, उसके पीछे दौड़ते रहे, परन्तु श्रम, शक्तिहीनता एवं मृत्यु के सिवा हाथ कुछ न लगा । अतः हम जानना ही चाहते हैं, तो अपने को जानें । यह सम्भव है, यही आवश्यक है । केवल यही जाना जा सकता है और यही जानना पूर्ण जानना है । इतना जान लेने के बाद फिर और कुछ जानना शेष नहीं रहता ।

(शेष आगेके ब्लागमें)
-'पथ प्रदीप' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ ३-४ (Page No. 3-4) ।

Monday, 10 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 10 October 2011
(आश्विन शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लाँगसे आगेका)
हम कैसे जी रहें हैं, कैसे जीना चाहिये :

         शरीर विज्ञान और मनोविज्ञान के अनुसार स्थूल और सूक्ष्म शरीरों की रचना ही इस प्रकार की है कि उन्हें बनाये रखने के लिए समय-समय पर अनेक प्रकार के प्रेरक (Motive) उत्पन्न होते रहते हैं और उनकी पूर्ति भी अनिवार्य होती है । परन्तु यह हमारी भूल है कि हम उसी क्रम को जीवन स्वीकार कर लेते हैं । इस भूल को मिटाना है ।

        शरीरों का पोषण केवल इनकी सुरक्षा की दृष्टि से करें तो हमारा आहार-विहार अपने आप संयमित हो जायेगा । शरीर जीवन नहीं है, जीवन प्राप्ति के लिए साधन-सामग्री है । अतः इसको आवश्यक वस्तुओं के द्वारा पोषित कर इसे परिवार और समाज की सेवा में लगा दें । शरीरों की आसक्ति से रहित हो जाने पर आवश्यक वस्तुओं का अभाव नहीं रह जाता ।

        तन, धन, कुल, परिवार आदि पर से अपने ममत्व का भार हटा लेने पर सबका स्वतः प्राकृतिक विकास होता है । यह लोक को सुन्दर बनाने की उत्तम कला है । आज तन में, मन में, परिवार में और समाज में जो कुरूपता दिखाई देती है, वह हमारे ममत्व का ही दुष्परिणाम है । हम जगत के साथ रहने की कला सिखलें, तो हमारा इनका सम्पर्क सार्थक हो जाय, अर्थात् आसक्ति-रहित व्यक्तियों की सेवा पाकर जगत आनन्द से फूले-फले और जगत की सेवा करके उससे मुक्त होकर व्यक्ति सत्य एवं मधुर से मिल कर कृत्-कृत्य हो जाय ।

        उपर्युक्त रीति से सही प्रवृति के बाद सहज निवृति का नम्बर आता है । सेवा की परिणति शान्ति में होती है । इच्छाओं की चहल-पहल से मुक्त होने पर श्रम-रहित होकर हम 'स्व' में प्रतिष्ठित होते हैं । मैं क्या हूँ ? जीवन क्या है ? जगत क्या है ? आदि-आदि प्रश्नों का सही उत्तर पाकर निःसन्देह होना साधनयुक्त जीवन का फल है ।

(शेष आगेके ब्लाँग्में)
-'पथ प्रदीप' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ २-३ (Page No. 2-3) ।

Sunday, 9 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 09 October 2011
(आश्विन शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं. २०६८, रविवार)
हम कैसे जी रहे हैं, कैसे जीना चाहिये :
        अब तक हमने बहुत कुछ किया, पर करने का अन्त नहीं हुआ बहुत कुछ जाना, पर निःसन्देह नहीं हुए बहुतों को अपना माना, पर हृदय की भूख नहीं मिटी कभी वस्तुओं का अभाव, कभी पराधीनता का दुःख, कभी नीरसता की पीड़ा, कभी लोक की और कभी परलोक की चिन्ता सताती ही रहती है अतः हमें जीना नहीं आया
    
        इस दशा में यदि हम जीवन का मूल्यांकन बदल डालें तो हमें जीने की कला आ जायेगी । शरीरों (स्थूल, सूक्ष्म और कारण) का पोषण-मात्र जीवन नहीं है यह तो सृष्टि का एक स्थूल भाग है । जो कुछ सत्य और मधुर है, उसकी उपलब्धि में ही जीवन है अतः शरीरों के पोषण की क्रिया में-से अपना संवेगात्मक सम्बन्ध हटा लें प्रेरकों (Motives) की उत्पत्ति से उत्पन्न तनाव (Tension) और पूर्ति से प्राप्त आराम (Relief) के परिणाम स्वरूप भासित होने वाले सुख में से महत्व बुद्धि निकाल दें
   
        सत्य, शाश्वत और मधुर से मिलने के लिए यह पहला कदम है । यह कठिन बात नहीं है और यदि इसे कठिन मानेंगे तो दूसरा उपाय भी नहीं है जीवन चाहिये, तो इतना करना ही होगा और हम सभी कर सकते हैं हम जीते तो हैं, पर मृत्यु की राह पर अब इस ढंग से जियें कि जिन्दगी के राह पर जायें
   
(शेष आगेके ब्लाँगमें) -(पथ प्रदीप) पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ १-२ (Page No. 1-2)।

Saturday, 8 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 8 October 2011
(आश्विन शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)
सन्त-समागम, भाग-
(गत ब्लाँगसे आगेका)
राग मिटने पर वैराग्य कैसे मिट जाता है

वैराग्य अग्नि के समान है जो रागरूपी लकड़ी को जलाता है जिस प्रकार लकड़ी का अभाव होते ही अग्नि अपने आप शान्त हो जाती है, उसी प्रकार राग का भाव होते ही वैराग्य, और अविचार का अभाव होते ही विचार, तथा अज्ञान का अभाव होते ही योग, स्वतः मिट जाता है अर्थात् सभी गुण दोष के आधार पर जीवित हैं, अतः दोषों का अभाव होने पर गुण अपने आप मिट जाते हैं वास्तव में तो जिस प्रकार प्रकाश की कमी ही अँधेरा है, उसी प्रकार गुणों की कमी ही दोष है । 


राग क्यों होता है

सुख से राग का जन्म होता है, क्योंकि यदि विषयों में सुख मालूम पड़े तो राग नहीं हो सकता विषयों में सुख-भाव अविचार से होता है, अविचार ज्ञान की कमी से होता है और ज्ञान की कमी अपने को शरीर समझने पर होती है इन सब कारणों से ही राग का जन्म होता है । 
दुःख क्यों होता है

सुख रूप बीज से ही दुःखरूप वृक्ष हरा-भरा होता है, क्योंकि ऐसा कोई दुःख नहीं है जिसका जन्म सुख से हुआ हो। 


दुःख और सुख का परिणाम

जो सुख किसी का दुःख बन कर मिलता है, वह मिट कर कभी कभी बड़ा दुःख हो जाता है, क्योंकि उसका जन्म दुःख से हुआ था और जो दुःख किसी का सुख बन कर मिला है वह मिटकर कभी कभी आनन्द में बदल जायेगा, क्योंकि प्राणी सुख से बँधता है और दुःख से छुट जाता है अर्थात् सुख से दुःख और दुःख से आनन्द मिलता है


त्याग का स्वरूप क्या है ? 

संसार की अनुकूलता तथा प्रतिकूलता पर विश्वास का अत्यन्त अभाव ही सच्चा त्याग है क्योंकि अनुकूलता से राग और प्रतिकूलता से द्वेष होता है राग-द्वेष का अभाव हो जाना ही त्याग है
जिस प्रकार लड़की पिता के घर कन्या और ससुराल में बहू तथा पुत्रवती होने पर माता कहलाती है, उसी प्रकार त्याग ही प्रेम और प्रेम ही ज्ञान कहलाता है
त्याग होने पर आस्तिकता जाने से त्याग प्रेम में, और आस्तिकता का यथार्थ अनुभव होने पर प्रेम ज्ञान में बदल जाता है | 
 
-'सन्त-समागम, भाग-१' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ ११-१२ (Page No. 11-12) ।