Friday, 21 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 21 October 2011
(कर्तिक कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)


संतपत्रावली-1
(Letter No. 1)

१.        जो प्राणी स्वयं हार स्वीकार नहीं करता वह कभी न कभी विजय अवश्य पाता है । अतः दुर्बलताओं के होते हुए भी उनके न मिटने का दुःख तथा अच्छाई का चिन्तन लगातार करते रहना चाहिए । यह अखण्ड नियम है कि चिन्तन के अनुसार कर्ता का स्वरूप बन जाता है ।

२.        जीवन का स्वरूप क्या है, यह भली प्रकार यथार्थ जान लेने पर जीवन से अरुचि अपने आप हो जाती है ।

३.       विचार दृष्टि से देखिये कि दुःख का जन्म कब होता है ? जब प्राणी अपने से किसी विशेष व्यक्ति को सुखी देखता है, तब उसके हृदय में दुःख का जन्म होता है । क्योंकि निर्धनों को यदि कोई धनी दिखाई न दे तो निर्धनता का दुःख कुछ नहीं होता । अतः सुखी जीवन ने दुःख को जन्म दिया ।

४.        पूर्ण दुखी, अधूरा दुखी नहीं, अपनी उन्नति तथा दूसरों को सुख प्रदान करने में सर्वथा समर्थ है क्योंकि दुखियों के बिना सुखियों की सत्ता कुछ नहीं रहती । इस दृष्टि से प्यारा दुखी पूजन करने के योग्य है ।

५.        विचार दृष्टि से देखो, सुखी जीवन से दूसरों को दुःख, दुखी जीवन से दूसरों को दुःख और मृत्यु से भी दूसरों को दुःख, इस दृष्टि से जीवन का स्वरूप क्या है ? केवल दुःख । इस प्रकार जीवन का स्वरूप जान लेने पर जीवन से अरुचि अवश्य हो जाती है । अरुचि होने पर शरीर तथा संसार से असंगता होती है जो उन्नति का मूल है।  

६.         दुखी का दुःख उसी समय तक जीवित है जब तक अभागा दुखी सुख की आशा में सुखियों की ओर देखता है । सुख तथा सुखियों से असंग होते ही दुःख का सदा के लिए अन्त हो जाता है । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है ।

Thursday, 20 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 20 October 2011
(कर्तिक कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
रोग - अभिशाप है या वरदान?

१३.         यह तो बताओ कि जन्म होते ही, मृत्यु आरम्भ नहीं हो जाती ? प्रत्येक वस्तु निरन्तर काल रूप अग्नि में जल रही है । विवेक की दृष्टि में तो केवल मृत्यु का ज्ञान और अमरत्व की माँग है । अर्थात मृत्यु से अमरत्व की ओर जाना ही प्राणी का परम पुरुषार्थ है । - संतपत्रावली-३, पत्र सं॰ ५० (Letter No. 50)

१४.         आजकल गृह अस्पताल बन गया है । तुम्हारा पवित्र शरीर भी पलंग पर पड़ा है । रोग भगवान भोग तथा शरीर की वास्तविकता का ज्ञान कराने के लिए आते हैं । अतः आये हुए रोग का अभिवादन करो और अपने को शरीर से असंग कर लो । - संतपत्रावली-३, पत्र सं॰ ५८ (Letter No. 58)

१५.         प्राप्त का अनादर और अप्राप्त का चिन्तन, अप्राप्त की रूचि और प्राप्त से अरुचि - यही मानसिक रोग है । - (साधन त्रिवेणी)

१६.         शारीरिक बल का आश्रय तोड़ने के लिए रोग आया है । कुछ रोग अभिमान बढ़ जाने पर भी होते हैं । किसी साधक को ऐसा छिपा हुआ अभिमान होता है कि जिसकी निवृति कराने के लिए रोग आता है । उनके सिखाने के अनेक ढंग हैं । भय से भी रोग हो जाते हैं । भय और अभिमान का अन्त हो जाने पर कुछ रोग स्वतः नाश हो जाते हैं । निश्चिन्तता तथा निर्भयता आने से प्राणशक्ति सबल होती है जो रोग मिटाने में समर्थ है । उसके लिए हरि-आश्रय तथा विश्राम ही अचूक उपाय है । - (पाथेय)

१७.         जो साधन-सामग्री है, उसके द्वारा साधक किसी प्रकार का सुख-सम्पादन न कर सके, इसी कारण वे रोग के स्वरूप में प्रकट होते हैं । पर साधक यह रहस्य नहीं जान पाता कि मेरे ही प्यारे रोग के वेष में आए हैं । रोग-भोग के राग का अन्त कर अपने-आप चला जाएगा ।  (पाथेय)

१८.         शरीर का पूर्ण स्वस्थ होना शरीर के स्वभाव के विपरीत है; क्योंकि जिस प्रकार दीन और रात दोनों से ही काल की सुन्दरता होती है, उसी प्रकार रोग और आरोग्य दोनों से ही वास्तविकता प्रकाशित होती है ।  - (संत समागम-१)

१९.         कभी-कभी जब प्राणी प्रमादवश विश्वनाथ की वस्तु को अपनी समझने लगता है, तब उसकी आसक्ति मिटाने के लिए 'रोग भगवान' आते हैं । शरीर विश्व की वस्तु है और विश्व विश्वनाथ का है, उसको अपना मत समझो । रोग से 'अशुभ कर्म के फल' का और तप से 'अशुभ कर्म' का अन्त होता है । (संत समागम-२) (Please read separate chapter on 'Roag' in 'Krantikari Santvani' book )

Wednesday, 19 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 19 October 2011
(कर्तिक कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
रोग - अभिशाप है या वरदान ?

६.        रोग की चिन्ता रोग से भी अधिक रोग है । अतः रोग की चिन्ता न करना परम औषधि है । रोग शरीर की वास्तविकता समझाने के लिए आता है। साधारण प्राणी शरीर की सुन्दरता में आसक्त होकर रोग से डरते हैं । वास्तव में रोग आरोग्य की अपेक्षा जीवन की अधिक आवश्यक वस्तु है । क्योंकि आरोग्य से प्रमाद तथा रोग से जागृति होती है । विचारशील को रोग से न डरकर उसका सदुपयोग करना चाहिए । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १०४ (Letter No. 104)

७.        रोग का वास्तविक हेतु केवल राग है क्योंकि राग से व्यर्थ-चिन्तन तथा असंयम होना स्वाभाविक है और व्यर्थ-चिन्तन तथा असंयम से प्राण-शक्ति का क्षीण होना अनिवार्य है । प्राण-शक्ति के दुर्बल होने पर अनेकों रोग स्वतः आ जाते हैं । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १६५ (Letter No. 165)

८.        कुछ रोग अदृश्य की मलिनता अर्थात् पूर्व कर्म के फल स्वरूप होते हैं । उनकी निवृति तप, त्याग तथा पुण्यकर्म से अथवा भोगने से ही होती है । असंयम द्वारा उत्पन्न रोग यथेष्ट पथ्य अर्थात् आहार-विहार के ठीक होने से मिट जाते हैं और वीतराग होने पर राग से उत्पन्न होनेवाले रोग भी मिट जाते हैं । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १६५ (Letter No. 165)

९.         मेरे विश्वास के अनुसार रोग राग का परिणाम है । राग का अन्त करने के लिए ही रोग उत्पन्न हुआ है । राग का अन्त कर रोग स्वतः नाश हो जाएगा और फिर बुलाने पर भी न आयेगा । - संतपत्रावली-२, पत्र सं॰ १२१ (Letter No. 121)

१०.         शरणागत साधक प्रत्येक घटना में अपने परम प्रेमास्पद, परम सुह्रदय की अनुपम लीला का दर्शन करते हैं । रोग के रूप में कोई और नहीं है, वे ही देहाभिमान गलाने के लिए आये हैं । तुम किसी भी काल में शरीर नहीं हो । सदैव सर्वत्र अपने शरणागतवत्सल प्यारे प्रभु को देखो । - संतपत्रावली-२, पत्र सं॰ १४२ (Letter No. 142)

११.         सच तो यह है कि शरीर के रहते हुए ही विचारपूर्वक शरीर से असंग होना अनिवार्य है और यही वास्तविक आरोग्य है । शरीर से किसी काल में जातीय सम्बन्ध नहीं है, केवल सेवा-कार्य के लिए काल्पनिक सम्बन्ध है । - संतपत्रावली-२, पत्र सं॰ १५९ (Letter No. 159)

१२.         जिस प्रकार मछलियों के उछलने से समुद्र को खेद नहीं होता, उसी प्रकार शरीर के बनने-बिगड़ने से विचारशील को क्षोभ नहीं होता । - संतपत्रावली-२, पत्र सं॰ ४१ (Letter No. 41) (Please read separate chapter on 'Roag' in 'Krantikari Santvani' book )

(शेष आगेके ब्लाग में)

Tuesday, 18 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 18 October 2011
(कर्तिक कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

रोग - अभिशाप है या वरदान ?

१.        रोग वास्तव में तप है, क्योंकि यदि रोग न हो तो इंद्रियों के रस से विरक्ति नहीं हो सकती, और न शरीर का यथार्थ ज्ञान होता और न सेवा करनेवालों को अवसर मिलता । सेवा करने से हृदय पवित्र होता है । देखिये, रोग भगवान की  कृपा से रोगी का तथा और लोगों का कितना लाभ हुआ ! - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १०९ (Letter No. 109)

२.        रोग शरीर का राग मिटाने के लिए, अथवा दूसरों का पुण्य-कर्म बढ़ाने के लिए आता है अथवा आरोग्य शरीरों को सुख प्रदान करने के लिए आता है । रोगावस्था में शरीर के साथ मजाक करनेका अवसर मिलता है । रोग होने पर निज-स्वरूप में निष्ठा हो जानी चाहिए, क्योंकि दुःख से असंगता स्वाभाविक होती है । जैसे टूटे मकान में सूर्य का प्रकाश और वायु अपने आप आते हैं उसी प्रकार रोग आ जाने पर वैराग्यरूपी वायु और ज्ञानरूपी प्रकाश स्वयं होता है । शरीर तथा संसार की अनुकूलता की आशा मत करो । शरीर की सत्यता तथा सुन्दरता मिट जाने पर काम का अन्त हो जाता है । काम का अन्त होते ही राम अपने आप आ जाते है । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ ९५ (Letter No. 95)

३.         प्राकृतिक विधान के अनुसार रोग वास्तव में तप है । किन्तु साधारण प्राणी उससे भयभीत होकर वास्तविक लाभ नहीं उठा पाते । रोग से शरीर की वास्तविकता का ज्ञान होता है तथा इन्द्रिय-लोलुपता मिट जाती है । भयंकर रोग छोटे-छोटे रोगों को मिटाकर आरोग्य तथा विकास प्रदान करता है । भोग-वासनाओं का अन्त कर देने पर मन में स्थिरता स्वतः आ जाती है । ज्यों-ज्यों स्थिरता स्थायी होती जाती है त्यों-त्यों रोग मिटाने की शक्ति अपने आप उत्पन्न होती जाती है । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १४७ (Letter No. 147)

४.        शारीरिक दशा कहने में नहीं आती, क्योंकि कथन उसका हो सकता है, जो एक सा रहे । इस सराय में रोग-रूपी मुसाफिर तो ठहरते ही रहते हैं । वास्तव में तो जीवन की आशा ही परम रोग और निराशा ही आरोग्यता है । देह-भाव का त्याग ही सच्ची औषधि है । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ ३३ (Letter No. 33)

५.        जब प्राणी तप नहीं करता तब उसको रोग के स्वरूप में तप करना पड़ता है । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १३२ (Letter No. 132)

(शेष आगेके ब्लाग में)

Monday, 17 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 17 October 2011
(कर्तिक कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)


प्रश्नोत्तरी

प्रश्न - आसक्ति-रहित होकर कार्य करने से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर - जिस कार्य को करने में अपना सुख निहित नहीं होता, जो सर्वहितकारी दृष्टि से किया जाता है, वह आसक्ति-रहित कार्य कहलाता है ।

प्रश्न - हम दूसरों के दोष क्यों देखते हैं ?
उत्तर - क्योंकि हम अपने दोषों को नहीं देखते ।

प्रश्न - पूजा का क्या अर्थ है ?
उत्तर - संसार को भगवान् का मानकर उन्हीं की प्रसन्नतार्थ संसार से मिली हुई वस्तुओं को संसार की सेवा में लगा देना ही पूजा है ।

प्रश्न - स्तुति, उपासना तथा प्रार्थना का क्या अर्थ है ?
उत्तर - प्रभु के अस्तित्व एवं महत्व को स्वीकार करना ही स्तुति है । प्रभु से अपनत्व का सम्बन्ध स्वीकार करना उपासना है और प्रभु-प्रेम की आवश्यकता अनुभव करना प्रार्थना है ।

प्रश्न - भगवत्प्राप्ति में विघ्न क्या है ?
उत्तर  - संसार को पसन्द करना ही सबसे बड़ा विघ्न है ।

प्रश्न - दुःख क्यों होता है ?
उत्तर - सुख-भोग से ही दुःख रूप वृक्ष उत्पन्न होता है । ऐसा कोई भी दुःख नहीं है, जिसका जन्म सुख-भोग से न हुआ हो ।

प्रश्न - दुःख और सुख का परिणाम क्या है ?
उत्तर - जो सुख किसी का दुःख बनकर मिलता है वह मिट कर कभी न कभी बहुत बड़ा दुःख हो जाता है और जो दुःख किसी का सुख बन कर मिलता है वह मिट कर कभी न कभी आनन्द प्रदान करता है । प्राणी सुख से बँधता और दुःख से छूट जाता है । सुख से दुःख और दुःख से आनन्द मिलता है ।

प्रश्न - त्याग क्या है ?
उत्तर - संसार की अनुकूलता व प्रतिकूलता पर विश्वास का अत्यन्त अभाव ही सच्चा त्याग है । क्योंकि अनुकूलता से राग और प्रतिकूलता से द्वेष का जन्म होता है । राग-द्वेष का अभाव हो जाना ही त्याग है। जिस प्रकार लड़की पिता के घर कन्या, ससुराल में बहू और पुत्रवती होने पर माता कहलाती है, उसी प्रकार त्याग ही प्रेम और प्रेम ही ज्ञान कहलाता है । त्याग होने पर आस्तिकता आ जाती है, तब त्याग प्रेम में बदल जाता है और आस्तिकता का यथार्थ अनुभव होने पर प्रेम ही ज्ञान में बदल जाता है । 

-'प्रश्नोत्तरी' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ ११-१२ (Page No. 11-12) ।

Sunday, 16 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 16 October 2011
(कर्तिक कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रश्नोत्तरी

प्रश्न - सच्चा सुख मानव को कब और कैसे मिल सकता है ?
उत्तर - वास्तव में मानव जीवन की यही सबसे बड़ी समस्या है । इसके हल करने में प्राणी सदा स्वतन्त्र है । इस प्रश्न पर गम्भीरतापूर्वक विचार न करना बड़ी भारी भूल है ।
        मानवता प्राप्त होने पर मनुष्य को वह सुख मिल जाता है जिसमें दुःख नहीं होता अर्थात् सच्चा सुख मिल जाता है ।
         सहज भाव से मूक भाषा में प्रेम-पात्र से प्रार्थना करो - "हे नाथ ! इस हृदय को अपनी प्रीति से भर दो । इस शरीर को दुखियों की सेवा में लगा दो । बुद्धि को विवेकवती बना दो । इस जगत् रूपी  वाटिका में मुझे एक सुन्दर पुष्प बना दो । मैं सदा आपकी कृपा की प्रतीक्षा में रहूँ।" ऐसी प्रार्थना करने से प्रेम-पात्र तुम्हें अपनी सेवा करने के योग्य अवश्य बना लेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है ।

प्रश्न - शारीरिक कष्टों को कैसे भूला जाय ?
उत्तर - भूला नहीं जाय, सहा जाय - चिंता एवं विलाप से रहित होकर । यह तप है । तप से शक्ति बढ़ती है । भूलने से तो जड़ता आवेगी । शरीर से तितिक्षा होनी चाहिए । तितिक्षा का अर्थ है, हर्षपूर्वक कष्ट को सहन करना ।

प्रश्न - मानव-सेवा-संघ की पहली प्रार्थना में यह कहा जाता है कि दुखियों के हृदय में त्याग का बल प्रदान करें । दुःखी बेचारा क्या त्याग करेगा ?
उत्तर - जब मनुष्य कुछ चाहता है और उसका चाहा नहीं होता है, तो वह दुःख का अनुभव करता है । इससे सिद्ध हुआ कि दुःख का कारण 'चाह' है । अतः अगर दुःखी दुःख से छुट्टी पाना चाहता है, तो उसे चाह का त्याग कर देना चाहिए । चाह का त्याग करने में मानव-मात्र स्वाधीन है ।

(शेष आगेके ब्लागमें)
-'प्रश्नोत्तरी' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ १० (Page No. 10) ।

Saturday, 15 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 15 October 2011
(कर्तिक कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रश्नोत्तरी

प्रश्न - दुःखी होना और करुणित होना एक बात है क्या?
उत्तर - नहीं, दुःख में जड़ता आती है । करुणा में चेतनता आती है, संसार से सम्बन्ध टूटता है ।

प्रश्न - शारीरिक रोग आने पर दुःख क्यों होता है ?
उत्तर - 'मैं शरीर हूँ' या 'शरीर मेरा है' - ऐसा समझने से दुःख होता है ।

प्रश्न - रोगी को दुःख न सताए, इसके लिए क्या करना चाहिए ?
उत्तर - रोग प्राकृतिक तप है, ऐसा मानकर उसे हर्षपूर्वक सहन कर लेना चाहिए ।

प्रश्न - रोगी व्यक्ति को रोगावस्था में क्या करना चाहिए ?
उत्तर - प्रत्येक अवस्था में प्रभु की अहैतुकी कृपा का अनुभव होता रहे और हृदय उनकी प्रीति से भरा रहे । शरीर के रहने, न रहने से साधकों को कोई लाभ-हानि नहीं होती । शरीर को बनाये रखने की कामना का त्याग आवश्यक है ।

प्रश्न - दुःख क्यों भोगना पड़ता है ?
उत्तर - सुख के भोगी को दुःख भोगना ही पड़ता है, ऐसा नियम ही है । सुख-भोग की रूचि के नाश के लिए रोग आता है ।

प्रश्न - बीमारी से क्यों डर लगता है ?
उत्तर - रोग शारीरिक बल का आश्रय तोड़ने के लिए आता है । उससे साधकों को डरना नहीं चाहिए, अपितु उसका सदुपयोग करना चाहिए ।

प्रश्न - रोग का सदुपयोग क्या है ?
उत्तर - दुःख का प्रभाव होना चाहिए । रोग देह की वास्तविकता का अनुभव करा देता है । शरीर से व्यक्ति को असंग करने में रोग सहायता देता है |

प्रश्न - रोग का निदान या दवा क्या है ?
उत्तर - शरीर के राग से निवृत होना ही साधक का लक्ष्य होना चाहिए। शारीरिक स्वास्थ्य का यथा-शक्ति ध्यान रख कर, शरीर की सेवा करनी चाहिए - ऐसा करने से शरीर के रोग का अन्त हो जाता है । शरीर सेवा-सामग्री है । साधक की प्रार्थना होनी चाहिए - "हे प्रभु ! यह शरीर विश्व के काम आ जाय, अहम् अभिमान-शून्य हो जाय एवं हृदय प्रेम से भर जाय ।"

(शेष आगेके ब्लागमें)
-'प्रश्नोत्तरी' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ ८-९ (Page No. 8-9) ।