Tuesday, 31 March 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Tuesday, 31 March 2015 
(चैत्र शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०७२, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

न्याय की आवश्यकता निर्दोषता के लिए है, किसी के विनाश के लिए नहीं । न्याय के नाम पर किसी का विनाश करना, किसी को हानि पहुँचाना, दुःखी कर देना, पराधीन बना देना, असमर्थ बना देने का प्रयास करना और निन्दनीय मान लेना न्याय के रूप में घोर अन्याय है । इन दोषों से रहित न्याय किसी अन्य पर नहीं किया जा सकता, अपितु अपने ही पर हो सकता है । अपने पर न्याय करने की पद्धति प्रचलित हो जाने पर राष्ट्र आदि के रूप में किसी अन्य न्यायाधीश की अपेक्षा नहीं रहती । अपने पर किसी अन्य न्यायाधीश की आवश्यकता अपने प्रति न्याय न करने से होती है । कोई भी न्यायाधीश अन्य के प्रति यथेष्ट न्याय नहीं कर सकता, अर्थात् दोष के अनुरूप न्याय नहीं कर पाता । यही कारण है कि शासन-प्रणाली के द्वारा समाज में निर्दोषता की अभिव्यक्ति नहीं हो पाती । कितने आश्चर्य की बात है कि जिसकी माँग सभी को है, वही जीवन में नहीं है ! जिसको लाने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रयोग किये जाते हैं; किन्तु सफलता नहीं होती । इस मौलिक समस्या पर विचार करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि प्रत्येक दोषी निर्दोष होने के लिए अपने द्वारा ही अपने प्रति न्याय कर सकता है ।

अपने प्रति न्याय करने के लिए निज-विवेक के प्रकाश में अपनी वर्तमान वस्तुस्थिति का यथेष्ट अध्ययन करना होगा । अर्थात् हम अपनी दृष्टि में अपने को कैसा पाते हैं, इर बात को स्पष्टत: जानना होगा । अपनी दृष्टि में अपने को आदर के योग्य न पाना अपने दोष को जानना है । मानव को अपने जिस दोष का ज्ञान हो जाता है, उस दोष के मिटाने की उत्कट लालसा जाग्रत होना अनिवार्य है, तभी न्याय-युक्त जीवन हो सकता है अथवा यों कहो कि भूतकाल के दोषों को जानकर निर्दोष होने के लिए ही अपने प्रति न्याय करने की बात आती है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 14-15)

Monday, 30 March 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Monday, 30 March 2015 
(चैत्र शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०७२, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

अपने दोष का ज्ञान जिस ज्ञान में है, वही ज्ञान विधान का प्रतीक है । ज्ञान दोष का प्रकाशक है, नाशक नहीं । निर्दोषता की माँग दोष की नाशक है । निर्दोषता से निराश होना प्रमाद है । निर्दोषता की प्राप्ति वर्तमान की वस्तु है । उसके लिए भविष्य की आशा करना असावधानी है । दोष-जनित सुख का राग ही दोषों की भूमि है । निर्दोषता की उत्कट लालसा दोष-जनित सुख के राग को खा लेती है । यद्यपि दोष-जनित सुख का राग मिटते ही वर्तमान निर्दोष हो जाता है, तो भी भूतकाल के दोषों की स्मृति उत्पन्न होती है । उसी के आधार पर व्यक्ति अपने को दोषी मानता है । यदि भूतकाल के दोषों को न दोहराने का दृढ संकल्प कर लिया जाए, तो वर्तमान की निर्दोषता का अनुभव होने लगता है ।

दोष को न दोहराना ही वास्तविक सर्वोत्कृष्ट न्याय है । वह न्याय प्रत्येक मानव अपने प्रति स्वाधीनता तथा सुगमतापूर्वक कर सकता है । यह नियम है कि पुनरावृत्ति न होने से जिसका नाश हो जाता है, उसका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता । जिसका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, वही असत् है । असत् के संग से ही दोषों की उत्पत्ति होती है । इसी कारण असत् के त्यागमात्र से समस्त दोष सदा के लिए मिट जाते हैं । इस रहस्य को भलीभाँति जान लेने पर साधक निर्दोष होने से निराश नहीं होता । इतना ही नहीं, वह निर्दोषता को वर्तमान जीवन की वस्तु मानकर जाने हुए समस्त दोषों के परित्याग में समर्थ होता है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 14)

Sunday, 29 March 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Sunday, 29 March 2015 
(चैत्र शुक्ल दशमीं, वि.सं.-२०७२, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

विधान आरम्भ में भले ही रुचिकर न प्रतीत हो; किन्तु ज्यों-ज्यों उसमें आस्था दृढ़ होती जाती है, त्यों-त्यों अकर्तव्य का नाश और कर्त्तव्य की अभिव्यक्ति स्वत: होती जाती है । कर्त्तव्यपरायणता और विधान, इन दोनों का स्वरूप एक है । इस दृष्टि से जीवन और विधान में भेद नहीं है । जब तक जीवन और विधान में भिन्नता प्रतीत होती हो, तब तक समझना चाहिए कि कर्त्तव्य के साथ-साथ अकर्त्तव्य भी है । अकर्त्तव्य का सर्वांश में अभाव होते ही कर्त्ता, कर्त्तव्य और विधान में एकता हो जाती है । उस विधान को क्रियात्मकरूप देने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की नियमावली स्वभाव से ही मानव स्वीकार कर लेता है । बस, यही नीति है ।

जो नीति जीवन और विधान की एकता में समर्थ नहीं है, वह नीति नहीं, अनीति है; उसका मानव-जीवन में कोई स्थान ही नहीं है । जो विधान निज-ज्ञान से प्रकाशित नहीं है, वह विधान, 'विधान' नहीं है, अपितु किसी आसक्ति का प्रभाव है । आसक्ति के रहते हुए विधान का बोध नहीं होता । इसी कारण वीतराग होने पर ही विधान से अभिन्नता प्राप्त होती है ।

नीति का क्रियात्मकरूप न्याय है । न्याय निर्दोषता का प्रतीक है । निर्दोषता के बिना जीवन की उपयोगिता सिद्ध नहीं होती; क्योंकि दोष-युक्त जीवन की माँग न तो जगत् को है और न अपने को ही । कोई भी व्यक्ति सर्वांश में अपने को दोषी मानकर जीवित नहीं रहना चाहता और न कोई मानव सर्वांश में दोषी हो ही सकता है । यह नियम है कि निर्दोषता के आश्रय के बिना दोष रह नहीं पाता; कारण, कि दोष का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, अपितु गुणों के अभिमान से ही दोष पोषित होते हैं । इस दृष्टि से निर्दोषता को सुरक्षित रखना अनिवार्य है । अत: विधान-युक्त नीति का अपने पर शासन परम आवश्यक है । विधान से अनुशासित मानव को किसी अन्य शासन की अपेक्षा नहीं रहती ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 13-14)

Saturday, 28 March 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Saturday, 28 March 2015 
(चैत्र शुक्ल राम नवमी, वि.सं.-२०७२, शनिवार)

दर्शन और नीति

प्राकृतिक नियमानुसार अपने दायित्व को पूरा करने की स्वाधीनता मानवमात्र को प्राप्त है ।

मिली हुई स्वाधीनता का सद्व्यय न करना मानव की अपनी भूल है । स्वाधीनता का दुरुपयोग वही करता है, जो अपने दायित्व को पूरा करने में अपने को असमर्थ मान लेता है। यह मान्यता विवेक-विरोधी मान्यता है । विवेक का विरोध करने पर मानव में अमानवता की उत्पत्ति हो जाती है, जिसके होते ही जीवन में उत्तरोत्तर पराधीनता, जड़ता तथा अभाव की वृद्धि होती है, जो किसी को अभीष्ट नहीं है ।

भूल को 'भूल' जान लेना भूल के नाश में हेतु है । जिस ज्ञान से भूल का ज्ञान होता है, वह ज्ञान नित्य प्राप्त है । उस नित्य प्राप्त ज्ञान के प्रकाश में इन्द्रिय-दृष्टि तथा बुद्धि-दृष्टि कार्य करती है । ज्यों-ज्यों मानव इन्द्रिय-दृष्टि के प्रभाव से प्रभावित होता जाता है, त्यों-त्यों भूल दृढ़ होती जाती है । इन्द्रिय-दृष्टि के उपयोग और प्रभाव में एक बड़ा भेद है । इन्द्रिय-दृष्टि का उपयोग वर्तमान आवश्यक कार्य की सिद्धि में सहायक है और उस दृष्टि का प्रभाव नवीन राग की उत्पत्ति में हेतु है । राग रूपी भूमि में ही विवेक-विरोधी कर्म का जन्म होता है । यह नियम है कि जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु स्वत: होती है । किन्तु जन्म का कारण रहते हुए नाश होने पर भी उसकी उत्पत्ति होती रहती है । अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि भूल का अन्त हुए बिना विवेक-विरोधी कर्म का सदा के लिए नाश नहीं हो सकता और उसका नाश हुए बिना जीवन जगत् के लिए उपयोगी सिद्ध नहीं होता । जो जीवन जगत् के लिए उपयोगी सिद्ध नहीं होता, उसकी माँग जगत् को नहीं है । जिस व्यक्ति की माँग जगत् को नहीं होती, उसमें जगत् की दासता उत्पन्न होती है । जगत् की दासता में आबद्ध प्राणी अपने कर्तव्य से च्युत हो जाता है । यद्यपि कर्त्तव्य का ज्ञान बीज रूप से उसमें विद्यमान रहता है; किन्तु जगत् की दासता कर्त्तव्य के ज्ञान का आदर नहीं करने देती । ऐसी भयंकर परिस्थिति में मानव को विधान की अधीनता स्वीकार करना अनिवार्य है।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 12-13)