Sunday 29 March 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Sunday, 29 March 2015 
(चैत्र शुक्ल दशमीं, वि.सं.-२०७२, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

विधान आरम्भ में भले ही रुचिकर न प्रतीत हो; किन्तु ज्यों-ज्यों उसमें आस्था दृढ़ होती जाती है, त्यों-त्यों अकर्तव्य का नाश और कर्त्तव्य की अभिव्यक्ति स्वत: होती जाती है । कर्त्तव्यपरायणता और विधान, इन दोनों का स्वरूप एक है । इस दृष्टि से जीवन और विधान में भेद नहीं है । जब तक जीवन और विधान में भिन्नता प्रतीत होती हो, तब तक समझना चाहिए कि कर्त्तव्य के साथ-साथ अकर्त्तव्य भी है । अकर्त्तव्य का सर्वांश में अभाव होते ही कर्त्ता, कर्त्तव्य और विधान में एकता हो जाती है । उस विधान को क्रियात्मकरूप देने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की नियमावली स्वभाव से ही मानव स्वीकार कर लेता है । बस, यही नीति है ।

जो नीति जीवन और विधान की एकता में समर्थ नहीं है, वह नीति नहीं, अनीति है; उसका मानव-जीवन में कोई स्थान ही नहीं है । जो विधान निज-ज्ञान से प्रकाशित नहीं है, वह विधान, 'विधान' नहीं है, अपितु किसी आसक्ति का प्रभाव है । आसक्ति के रहते हुए विधान का बोध नहीं होता । इसी कारण वीतराग होने पर ही विधान से अभिन्नता प्राप्त होती है ।

नीति का क्रियात्मकरूप न्याय है । न्याय निर्दोषता का प्रतीक है । निर्दोषता के बिना जीवन की उपयोगिता सिद्ध नहीं होती; क्योंकि दोष-युक्त जीवन की माँग न तो जगत् को है और न अपने को ही । कोई भी व्यक्ति सर्वांश में अपने को दोषी मानकर जीवित नहीं रहना चाहता और न कोई मानव सर्वांश में दोषी हो ही सकता है । यह नियम है कि निर्दोषता के आश्रय के बिना दोष रह नहीं पाता; कारण, कि दोष का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, अपितु गुणों के अभिमान से ही दोष पोषित होते हैं । इस दृष्टि से निर्दोषता को सुरक्षित रखना अनिवार्य है । अत: विधान-युक्त नीति का अपने पर शासन परम आवश्यक है । विधान से अनुशासित मानव को किसी अन्य शासन की अपेक्षा नहीं रहती ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 13-14)