Saturday, 28 March 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Saturday, 28 March 2015 
(चैत्र शुक्ल राम नवमी, वि.सं.-२०७२, शनिवार)

दर्शन और नीति

प्राकृतिक नियमानुसार अपने दायित्व को पूरा करने की स्वाधीनता मानवमात्र को प्राप्त है ।

मिली हुई स्वाधीनता का सद्व्यय न करना मानव की अपनी भूल है । स्वाधीनता का दुरुपयोग वही करता है, जो अपने दायित्व को पूरा करने में अपने को असमर्थ मान लेता है। यह मान्यता विवेक-विरोधी मान्यता है । विवेक का विरोध करने पर मानव में अमानवता की उत्पत्ति हो जाती है, जिसके होते ही जीवन में उत्तरोत्तर पराधीनता, जड़ता तथा अभाव की वृद्धि होती है, जो किसी को अभीष्ट नहीं है ।

भूल को 'भूल' जान लेना भूल के नाश में हेतु है । जिस ज्ञान से भूल का ज्ञान होता है, वह ज्ञान नित्य प्राप्त है । उस नित्य प्राप्त ज्ञान के प्रकाश में इन्द्रिय-दृष्टि तथा बुद्धि-दृष्टि कार्य करती है । ज्यों-ज्यों मानव इन्द्रिय-दृष्टि के प्रभाव से प्रभावित होता जाता है, त्यों-त्यों भूल दृढ़ होती जाती है । इन्द्रिय-दृष्टि के उपयोग और प्रभाव में एक बड़ा भेद है । इन्द्रिय-दृष्टि का उपयोग वर्तमान आवश्यक कार्य की सिद्धि में सहायक है और उस दृष्टि का प्रभाव नवीन राग की उत्पत्ति में हेतु है । राग रूपी भूमि में ही विवेक-विरोधी कर्म का जन्म होता है । यह नियम है कि जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु स्वत: होती है । किन्तु जन्म का कारण रहते हुए नाश होने पर भी उसकी उत्पत्ति होती रहती है । अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि भूल का अन्त हुए बिना विवेक-विरोधी कर्म का सदा के लिए नाश नहीं हो सकता और उसका नाश हुए बिना जीवन जगत् के लिए उपयोगी सिद्ध नहीं होता । जो जीवन जगत् के लिए उपयोगी सिद्ध नहीं होता, उसकी माँग जगत् को नहीं है । जिस व्यक्ति की माँग जगत् को नहीं होती, उसमें जगत् की दासता उत्पन्न होती है । जगत् की दासता में आबद्ध प्राणी अपने कर्तव्य से च्युत हो जाता है । यद्यपि कर्त्तव्य का ज्ञान बीज रूप से उसमें विद्यमान रहता है; किन्तु जगत् की दासता कर्त्तव्य के ज्ञान का आदर नहीं करने देती । ऐसी भयंकर परिस्थिति में मानव को विधान की अधीनता स्वीकार करना अनिवार्य है।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 12-13)