Monday, 30
March 2015
(चैत्र शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०७२, सोमवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन
और नीति
अपने दोष का ज्ञान जिस ज्ञान में है, वही ज्ञान विधान का प्रतीक है ।
ज्ञान दोष का प्रकाशक है, नाशक नहीं । निर्दोषता की माँग दोष
की नाशक है । निर्दोषता से निराश होना प्रमाद है । निर्दोषता की प्राप्ति वर्तमान की
वस्तु है । उसके लिए भविष्य की आशा करना असावधानी है । दोष-जनित सुख का राग ही दोषों
की भूमि है । निर्दोषता की उत्कट लालसा दोष-जनित सुख के राग को खा लेती है । यद्यपि
दोष-जनित सुख का राग मिटते ही वर्तमान निर्दोष हो जाता है, तो
भी भूतकाल के दोषों की स्मृति उत्पन्न होती है । उसी के आधार पर व्यक्ति अपने को दोषी
मानता है । यदि भूतकाल के दोषों को न दोहराने का दृढ संकल्प कर लिया जाए, तो वर्तमान की निर्दोषता का अनुभव होने लगता है ।
दोष को न दोहराना ही वास्तविक सर्वोत्कृष्ट न्याय है । वह न्याय प्रत्येक
मानव अपने प्रति स्वाधीनता तथा सुगमतापूर्वक कर सकता है । यह नियम है कि पुनरावृत्ति
न होने से जिसका नाश हो जाता है, उसका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता । जिसका स्वतन्त्र
अस्तित्व नहीं है, वही असत् है । असत् के संग से ही दोषों की
उत्पत्ति होती है । इसी कारण असत् के त्यागमात्र से समस्त दोष सदा के लिए मिट जाते
हैं । इस रहस्य को भलीभाँति जान लेने पर साधक निर्दोष होने से निराश नहीं होता । इतना
ही नहीं, वह निर्दोषता को वर्तमान जीवन की वस्तु मानकर जाने हुए
समस्त दोषों के परित्याग में समर्थ होता है ।
- (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति
पुस्तक से, (Page No. 14) ।