Wednesday, 30 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 30 November 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दुःख का प्रभाव 

    प्राकृतिक नियमानुसार सर्वांश में कोई भी परिस्थिति सुखमय तथा दुःखमय नहीं होती, अर्थात् उत्पन्न हुई प्रत्येक परिस्थिति आंशिक सुख तथा दुःख से युक्त है। आंशिक दुःख जब आंशिक सुख के प्रलोभन को सुख-काल में ही नष्ट कर देता है, तब उसे दुःख का प्रभाव समझना चाहिए । दुःख के रहते हुए और यह जानते हुए कि आया हुआ आंशिक सुख किसी भी प्रकार नहीं रहेगा, सुख-भोग की रूचि तथा उसकी आशा रखना दुःख का भोग है । सुख-काल में भी सुख-भोग का त्याग पुरुषार्थ से साध्य है। किन्तु दुःख के प्रभाव के बिना सर्वांश में दुःख का नाश किसी भी प्रकार साध्य नहीं है ।

        दुःख में सुख की आशा दुःख का भोग है । सुख में दुःख का दर्शन दुःख का प्रभाव है । भूख से पीड़ित प्राणी भोजन की आशा में सुख का अनुभव करने लगता है । यद्यपि सुख स्वरूप से नहीं होता, तथापि सुख-भोग की स्मृति उसे दुःख-काल में भी सुख का भास कराती है । उसी प्रकार सुख का भोग करते हुए सुख के न रहने की अनुभूति, सुख में ही दुःख का दर्शन कराती है, जिस प्रकार संयोग-काल में ही वियोग का भय होने लगता है ।

        दुःख का प्रभाव सजगता और दुःख का भोग जड़ता प्रदान करता है । सजगता असावधानी को नष्ट करती है; क्योंकि वह चिन्मय जीवन की ओर अग्रसर करती है । जड़ता चिन्मय जीवन से विमुख कर, मानव को सुख के प्रलोभन, दासता और आशा में आबद्ध करती है । जड़ता से चेतना की ओर अग्रसर होने के लिए दुःख के भोग का अन्त कर उसके प्रभाव को अपनाना अनिवार्य है।

        अपने आप जानेवाला जो सुख है, उसके न रहने का अनुभव यदि सुख-काल में ही कर लिया जाय, तो बहुत ही सुगमतापूर्वक सुख के भोग का नाश और दुःख के प्रभाव की अभिव्यक्ति हो सकती है । सुख-काल में सुख के जाने की विस्मृति ने ही दुःख का आह्वान किया है । इस कारण सुख का भोग करते हुए कोई भी प्राणी किसी भी प्रकार से दुःख से बच ही नहीं सकता, यह निर्विवाद सत्य है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 22)

Tuesday, 29 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 29 November 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दुःख का प्रभाव 

      दुःख का प्रभाव सुख-लोलुपता का अन्त कर मानव को सुख की आशा से मुक्त कर देता है । सुख की आशा से रहित होते ही सुख-दुःख से अतीत के जीवन की तीव्र जिज्ञासा तथा उत्कट लालसा जाग्रत होती है, जो विकास का मूल है ।

        सुख के न रहने अथवा उसके चले जाने की सम्भावना से दुःख की प्रतीति होती है । दुःख की प्रतीति होने पर यदि असावधानी से सुख की आशा उत्पन्न हो गई, तो दुःख का भोग होगा, प्रभाव नहीं । यदि आए हुए दुःख ने सुख की आशा को उत्पन्न नहीं होने दिया, अपितु प्राप्त सुख में भी दुःख का दर्शन करा दिया, तो यह दुःख का प्रभाव है । सुख में दुःख का दर्शन होते ही सुख के भोग की रूचि का नाश होता है, जिसके होते ही सुख-लोलुपता तथा सुख की आशा शेष नहीं रहती और फिर स्वतः दुःख का प्रभाव, दुःख का अन्त कर वास्तविक जीवन से साधक को अभिन्न कर देता है ।

        दुःख का भोग दुखी को न तो सुखी कर पाता है और न दुःख का ही अन्त होता है, अपितु बेचारा दुःख का भोगी सुख की आशा में ही आबद्ध रहता है । इस दृष्टि से दुःख का भोग दुखी का अहित ही करता है । दुःख के प्रभाव तथा उसके भोग का अन्तर स्पष्ट हो जाने पर प्रत्येक दुखी दुःख के प्रभाव को अपनाकर कृतकृत्य हो सकता है ।

        दुःख का भोग जड़ता और दुःख का प्रभाव चेतनता प्रदान करता है । सुख के भोगी को दुःख विवश होकर भोगना ही पड़ता है। सुख-भोग की रूचि बनाये रखने पर दुःख का भोग होता ही रहता है । इस कारण सुख-भोग की रूचि का नाश अनिवार्य है, जो दुःख के प्रभाव से ही सम्भव है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 21)

Monday, 28 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 28 November 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दुःख का प्रभाव 

        सुख की दासता रखते हुए दुःख का भय किसी भी प्रकार मिट नहीं सकता। इस कारण सुख की दासता का अन्त करना अनिवार्य है। सुख की दासता आए हुए सुख को सुरक्षित नहीं रख पाती, फिर भी सुख का भोगी उसका त्याग नहीं कर सकता । यह कैसी विडम्बना है ! सुख की दासता ही दुःख का भोग कराती है, दुःख का प्रभाव नहीं होने देती । दुःख का प्रभाव सुख-काल में भी सुख की दासता से मुक्त कर देता है । इस दृष्टि से आए हुए दुःख का प्रभाव विकास का मूल है । पर यह रहस्य वे ही जान पाते हैं, जिन्होनें सुख-दुःख की वास्तविकता को भलीभाँति निज-विवेक के प्रकाश में अनुभव किया है ।

        वस्तुतः दुःख का भय ही दुखी को दुःख के भोग में प्रवृत करता है, उसका प्रभाव नहीं होने देता । जिस अनुकूलता के जाने का दुःख है, क्या वह अनुकूलता किसी भी प्रयास से सुरक्षित रह सकती है ? कदापि नहीं । प्रतिकूलता, अनुकूलता की दासता का अन्त करने के लिए आती है । उससे भयभीत होना भूल है। अनुकूलता करुणित बनाने के लिए आती है । उसका भोग करना प्रमाद है । इस दृष्टि से अनुकूलता तथा प्रतिकूलता सदैव नहीं रहेंगी । इन दोनों का सदुपयोग अनिवार्य है । इनमें जीवन-बुद्धि स्वीकार करना असावधानी है । असावधानी के समान और कोई बात अहितकर नहीं है । असावधानी का मानव-जीवन में कोई स्थान ही नहीं है । इस कारण वर्तमान में ही सजगतापूर्वक असावधानी का अन्त करना अनिवार्य है ।

        निज-विवेक के अनादर से ही असावधानी उत्पन्न होती है। असावधानी किसी और की देन नहीं है और न किसी कर्म-विशेष का ही फल है, अपितु उत्पन्न हुई असावधानी निज-विवेक का आदर करने से स्वतः नष्ट हो जाती है । दुःख का प्रभाव निज-विवेक के आदर में हेतु है और दुःख का भोग अविवेक को पोषित करता है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 20-21)

Sunday, 27 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 27 November 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०६८, रविवार)
        
दुःख का प्रभाव 
    
     प्राकृतिक नियमानुसार जो न चाहने पर भी प्रत्येक प्राणी के जीवन में आ ही जाता है, वही दुःख है और जो चाहते हुए भी नहीं रहता, वही सुख है । ऐसे दुःख-सुख को बलपूर्वक रोकना अथवा बनाये रखना किसी भी प्राणी के लिए सम्भव नहीं है। जिसका रोकना सम्भव नहीं है, उसका आदरपूर्वक स्वागत करना अनिवार्य है और जिसके सुरक्षित रखने में सभी असमर्थ हैं, उसमें जीवन-बुद्धि स्वीकार करना प्रमाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

        यह नियम है कि जिसे बलपूर्वक नहीं रोक पाते, उसके आने पर भयभीत होना और जो न चाहते हुए भी चला जाता है, उसकी दासता का अंकित होना - साधारण प्राणियों के लिए स्वाभाविक - सा है; यद्यपि वास्तविक माँग की खोज करने पर स्पष्ट विदित होता है कि भय तथा दासता से युक्त जीवन किसी को भी अभीष्ट नहीं है । इस दृष्टि से मानव-जीवन की मौलिक माँग सब प्रकार के भय तथा दासता से मुक्त होना है । 
 
        मंगलमय विधान के अनुसार माँग की पूर्ति प्रत्येक परिस्थिति में सम्भव है । कामना-पूर्ति कामना के अनुरूप परिस्थिति में ही सम्भव है, परन्तु माँग की पूर्ति प्रत्येक परिस्थिति में होती है । अतएव परिस्थिति-भेद होने पर माँग की पूर्ति से निराश होना अथवा किसी परिस्थिति विशेष का आह्वान करना असावधानी तथा भूल से भिन्न और कुछ नहीं है ।

        भयभीत होने पर प्राप्त सामर्थ्य, योग्यता तथा वस्तु का सद्व्यय नहीं हो पाता और प्राकृतिक नियमानुसार, भयभीत होने से आवश्यक विकास भी नहीं होता; कारण कि भय  से शक्ति क्षीण होती है और असावधानी और प्रमाद पोषित होते हैं, जो विनाश का मूल है । भय का सर्वांश में नाश करने के लिए अपने-आप आए हुए दुःख का प्रभाव आवश्यक है, उसका भोग नहीं।

        दुःख का भोग, गए हुए सुख की दासता तथा लोलुपता एवं उसकी आशा में आबद्ध करता है । जिसे किसी भी प्रकार न रख सकें, उसकी दासता, लोलुपता एवं आशा करना किसी के लिए भी हितकर नहीं है । इस दृष्टि से दुःख के भय तथा सुख की दासता का मानव-जीवन में कोई स्थान ही नहीं है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 19-20)

Saturday, 26 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 26 November 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, शनिवार)
          
(गत ब्लागसे आगेका)
हम क्या करें ? 

        अपने लिए किसी अन्य की अपेक्षा न हो; अपितु अपने में जो प्रेमास्पद है, उसी की प्रीति अपना जीवन हो जाय। प्रीति और प्रीतम के नित्य-विहार में ही अनन्त, अविनाशी, नित्य-नव रस की अभिव्यक्ति होती है । उसकी उपलब्धि ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य है, जिसकी प्राप्ति एक-मात्र सवाधीनता का सदुपयोग एवं स्वाधीन होने में है । यह जीवन का सत्य है ।

        सत्य से अभिन्न होने के लिए यह ज्ञानपूर्वक अनुभव करना है कि संसार में मेरा कुछ नहीं है, मेरा किसी पर कोई अधिकार नहीं है, अपितु मुझपर सभी का अधिकार है। बुराई-रहित होने से सभी के अधिकार की रक्षा स्वतः हो जाती है और भलाई का अभिमान तथा फल छोड़ देने से मानव स्वाधीन होकर, अपने में अपने को सन्तुष्ट कर अविनाशी जीवन से अभिन्न हो जाता है और फिर अनन्त की अहैतुकी कृपा से उदारता तथा प्रेम की स्वतः अभिव्यक्ति होती है ।

        "मेरा कुछ नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिए" - यह मानव का पुरुषार्थ है । सर्व-समर्थ प्रभु अपने हैं, सब कुछ प्रभु का है - यह वेद-वाणी तथा गुरुवाणी के द्वारा विकल्प-रहित विश्वासपूर्वक स्वीकार करना चाहिए । विश्वास से भिन्न प्रभु-प्राप्ति का और कोई उपाय नहीं है । निर्विकारता, चिर-शान्ति तथा अविनाशी जीवन ज्ञान से सिद्ध है और सबकुछ प्रभु का है, प्रभु अपने हैं - यह विश्वास से सिद्ध है । विश्वास भी बल तथा ज्ञान के समान दैवी-तत्व है ।

        बल जगत् की सेवा के लिए है और ज्ञान भूल-रहित होने के लिए है और विश्वास से ही प्रभु से आत्मीय सम्बन्ध होता है। बल का उपयोग विज्ञान से होता है अथवा यों कहो कि विज्ञान भी एक प्रकार का बल है, उसका कभी भी दुरूपयोग नहीं करना चाहिए। बल का दुरूपयोग न करना मानवता है अर्थात् जीवन-विज्ञान है। सदुपयोग के अभिमान तथा फलासक्ति से रहित होना अध्यात्मवाद अर्थात् मानव-दर्शन है । जीवन-विज्ञान हमें उदारता तथा अध्यात्म-विज्ञान हमें स्वाधीन होने की प्रेरणा देता है । प्रभु अपने हैं, अपने में हैं - यह आस्था हमें प्रेम-तत्व से अभिन्न करती है ।

        उदारता, स्वाधीनता एवं प्रेम ही जीवन है, जिसकी माँग बीज-रूप से मानव-मात्र में विद्यमान है । जीवन का जो सत्य है उसे स्वीकार करने से ही भूल की निवृति एवं योग, बोध, प्रेम की प्राप्ति होती है । यह अनुभव-सिद्ध सत्य है ।

- 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से (Page No. 16-18)

Friday, 25 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 25 November 2011
(मार्गशीर्ष अमावस्या, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)
        
 (गत ब्लागसे आगेका)
हम क्या करें ? 

        दूसरों के द्वारा बलपूर्वक व्यक्तिगत सम्पत्ति के विभाजन-मात्र से समाज की गरीबी नहीं मिटेगी । अपितु समाज में आलस्य और विलास की ही वृद्धि होगी, जो दरिद्रता का मूल है। राष्ट्रगत सम्पत्ति हो जाने से सरकार के नाम पर समाज में एक नौकरशाही वर्ग उत्पन्न हो जाता है । समाज में बहुत थोड़े से लोगों के हाथों में देश की सारी सामर्थ्य आ जाती है । सामर्थ्य का अल्प संख्या में एकत्रित हो जाना, व्यक्तियों को सामर्थ्य के अभिमान में आबद्ध करना है, जो विनाश का मूल है । जब अधिक संख्या में सामर्थ्य विभाजित रहती है, तब मानव स्वाधीनतापूर्वक एकता तथा समता की ओर अग्रसर होता है ।

        अकिंचन तथा स्वाधीन होने से व्यक्ति को अपने लिए सामर्थ्य की अपेक्षा नहीं रहती । फिर वह देहातीत अर्थात् जगत् से परे के जीवन को पाकर सन्तुष्ट हो, उदार तथा प्रेमी स्वतः हो जाता है, जिससे मानव की जगत् और जगत् के प्रकाशक से वास्तविक एकता हो जाती है । स्वाधीनता, उदारता और प्रेम उसका जीवन हो जाता है ।

        उदारता, स्वाधीनता एवं प्रेम अविनाशी तथा अनन्त तत्व हैं अथवा यों कहो कि प्रभु का स्वभाव और मानव का जीवन है। पराश्रय से गरीबी नाश नहीं होती । इसी कारण सम्पत्ति के आश्रित शान्ति नहीं मिलती । परिश्रम पर-सेवा के लिए है। उसके बदले में अपने को कुछ नहीं चाहिए । तभी मानव श्रम के अन्त में विश्राम को पाकर, स्वाधीन होकर, उदार तथा प्रेमी हो जाता है। हमें यही करना है कि स्वाधीनता का सदुपयोग कर स्वाधीन हो जाएँ ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से (Page No. 16)

Thursday, 24 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 24 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हम क्या करें ? 

        हम क्या करें ? यह एक सजग मानव की माँग है। इस सम्बन्ध में गम्भीरतापूर्वक विचार करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि मिली हुई स्वाधीनता का दुरूपयोग न करें, अपितु पवित्र भाव से सदुपयोग करें अथवा यों कहो दुरूपयोग न करने पर सदुपयोग स्वतः होगा । यह एक प्राकृतिक विधान है । हाँ, विचारपूर्वक किए हुए सदुपयोग का अभिमान न करें और उसका अपने लिए फल न माँगें।
      
         केवल कर्तव्य-बुद्धि से करने की बात है, जिससे विद्यमान राग की निवृति हो जाय । राग-निवृति से ही स्वतः योग प्राप्त होता है । यह प्रकृति से परे का विधान है । योग की पूर्णता से बोध एवं प्रेम की अभिव्यक्ति होती है । यह प्रभु का मंगलमय विधान है । प्रकृति का विधान कर्तव्य-विज्ञान और प्रकृति से परे का विधान अध्यात्मवाद एवं प्रभु का मंगलमय विधान आस्तिकवाद है ।

        यह सर्वमान्य सत्य है कि प्रत्येक मानव में करने, जानने और मानने की सामर्थ्य है । वह उसे अपने रचयिता से प्राप्त हुई है। वह किसी प्रयास का फल नहीं है । इतना ही नहीं, यदि यह मान लिया जाय कि इन तत्वों की प्राप्ति से ही प्रयास का आरम्भ होता है, तो अत्युक्ति न होगी । सामर्थ्य का दुरूपयोग न करना कर्तव्य-विज्ञान है, इससे मानव, जगत् के लिए उपयोगी होता है; किन्तु जगत् में अपना कुछ नहीं है । अतः अपने को जगत् से कुछ नहीं चाहिए । यह अध्यात्म-विज्ञान अर्थात् मानव-जीवन का दर्शन है । दर्शन हमें स्वाधीन होने की प्रेरणा देता है ।
          
        निर्मम तथा निष्काम होने से ही स्वाधीनता से अभिन्नता होती है । जीवन-विज्ञान बुराई-रहित होने की प्रेरणा देता है और फिर स्वतः परिस्थिति के अनुसार भलाई होने लगती है । यही भौतिकवाद तथा कर्तव्य-विज्ञान है । यह कर्तव्य मानव को स्वतः करना चाहिए । यही मानवीय साम्य है, सच्चा साम्य है । यह साम्य मानव को स्वाधीनतापूर्वक अपने द्वारा अपने लिए अपनाना चाहिए । तभी व्यक्तिगत क्रान्ति से समाज और व्यकित में एकता होगी ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से (Page No. 15-16)