Sunday, 05
April 2015
(वैशाख कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७२, रविवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन
और नीति
आन्तरिक एकता के बिना बाह्य एकता कुछ अर्थ नहीं रखती । यदि बाह्य एकता
का कोई विशेष मूल्य होता, तो एक ही मत, सम्प्रदाय और देश में परस्पर संघर्ष न होता
। इतना ही नहीं, देखने में तो यहाँ तक आता है कि सहोदर भाई-बहिन,
पति-पत्नी, पिता-पुत्र आदि में भी संघर्ष है ।
तो फिर किसी बाह्य एकता के आधार पर विश्व में संघर्ष नहीं होगा, ऐसी मान्यता केवल कल्पनामात्र प्रतीत होती है, वास्तविक नहीं ।
संघर्ष का मूल आन्तरिक भिन्नता है, बाह्य नहीं । अब यह विचार करना
होगा कि आन्तरिक भिन्नता क्या है ? तो कहना होगा कि बाह्य भेदों
के आधार पर प्रीति का भेद स्वीकार करना । जब तक अनेक भेद होने पर भी प्रीति की एकता
को नहीं अपनाया जाएगा, तब तक आन्तरिक एकता सिद्ध न होगी और उसके
बिना संघर्ष का अन्त सम्भव नहीं है ।
प्रत्येक साधन-प्रणाली के मूल में दार्शनिक दृष्टिकोण होता है । प्रीति
की एकता भी एक साधन-प्रणाली है । उसके मूल में दार्शनिक तत्त्व क्या है ? समस्त विश्व एक है । उसमें
स्वरूप की भिन्नता नहीं है; कारण, कि सारी
सृष्टि एक ही धातु से निर्मित है । परन्तु इन्द्रिय-ज्ञान से उस एकता में अनेक प्रकार
की भिन्नता का दर्शन होता है । जिस प्रकार किसी भी जल-कण को सागर से भिन्न नहीं कर
सकते, अर्थात् प्रत्येक जल-कण जल-रूप ही है, उसी प्रकार किसी भी वस्तु तथा व्यक्ति को विश्व से विभक्त नहीं कर सकते । विश्व
की दृष्टि से समस्त प्राणि-मात्र एक है । एक शरीर में भी प्रत्येक अवयव की आकृति तथा
कर्म अलग-अलग हैं; किन्तु फिर भी शरीर के प्रत्येक अवयव में प्रीति
की एकता है । कर्म में भिन्नता होने से प्रीति का भेद नहीं होता । इसके मूल में कारण
यही है कि समस्त शरीर एक है । इस बात में किसी का विरोध नहीं है । उसी प्रकार यदि विश्व
की एकता में आस्था कर ली जाए, तो भाषा, मत, कर्म, विचार-धारा, पद्धति, आकृति,
रहन-सहन आदि में भिन्न-भिन्न प्रकार का भेद होने पर भी प्रीति की एकता
सुरक्षित रह सकती है ।
- (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति
पुस्तक से, (Page No. 18-19) ।