Monday 6 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Monday, 06 April 2015 
(वैशाख कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७२, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

प्राकृतिक नियम के अनुसार तो भिन्नता एकता-सम्पादन के लिए साधनरूप है, परन्तु व्यक्तित्व के मोह तथा अपनी-अपनी मान्यता की आसक्ति के कारण जो भिन्नता एकता-सम्पादन के लिए मिली थी, वह आज संघर्ष का कारण बन गई है । ऐसी भयंकर परिस्थिति में मानव-समाज को इन्द्रिय-ज्ञान से प्रतीत होने वाली भिन्नता में एकता का दर्शन बुद्धि-दृष्टि से विवेक के प्रकाश में करना अनिवार्य है ।

अनेकता में एकता का दर्शन करते ही उन सभी प्रवृत्तियों का स्वत: अन्त हो जाएगा, जिनसे निर्बलों के अधिकारों का अपहरण होता है । यह नियम है कि जो नहीं करना चाहिए, उसके न करने पर वह स्वत: होने लगता है, जो करना चाहिए । जिसके द्वारा किसी के अधिकार का अपहरण नहीं होता, उसके द्वारा दूसरों के अधिकार की रक्षा स्वत: होने लगती है । गतिशील जीवन में अवनति का निरोध होते ही उन्नति स्वत: होती है । उसी विकास का ह्रास होता है, जिसकी उत्पत्ति में किसी का विनाश निहित है ।

किसी की अवनति के द्वारा प्राप्त की हुई उन्नति अवनति ही है । आरम्भ में भले ही ऐसा प्रतीत होता है कि किसी की हानि में किसी का लाभ है; पर परिणाम में तो यही सिद्ध होगा कि किसी की हानि से उत्पन्न हुआ लाभ एक बड़ी हानि की तैयारी है । इसी भूल से दो देशों में, दो वर्गो में, दो व्यक्तियों में, दो मतों, सम्प्रदायों एवं विचार-धाराओं में परस्पर संघर्ष होता रहता है । यद्यपि सभी की माँग उन्नति की है; किन्तु उन्नति के नाम पर प्रीति के स्थान पर संघर्ष को जन्म देते हैं । जिस बल का उपयोग निर्बलों के विनाश में किया जाता है यदि उसी बल का उपयोग निर्बलों के विकास में किया जाए, तो क्या उन्नति न होगी ? अवश्य होगी । परन्तु बल के अभिमानी बल का सदुपयोग न करके उसका दुरुपयोग कर बैठते हैं ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 20)