Tuesday 7 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Tuesday, 07 April 2015 
(वैशाख कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७२, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

बल का दुरुपयोग करते ही विरोधी शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है । उसका परिणाम यह होता है कि जो अपने को सबल मानता था, वही निर्बल हो जाता है और फिर उसके प्रति वही होने लगता है, जो उसने अन्य के प्रति किया था । इस प्रकार परस्पर में उन्नति के नाम पर संघर्ष होते रहते हैं, जो वास्तव में अवनति के हेतु हैं । जब समस्त विश्व एक दृश्य है, तो जिस ज्ञान से सृष्टि की प्रतीति होती है, वह ज्ञान भी एक है । यदि ऐसा न होता तो, न तो विश्व की एकता सिद्ध होती और न उसके द्रष्टा की; और न यह सिद्ध होता कि सर्व का ज्ञाता एक है । सर्व के ज्ञान ने अपने ज्ञाता को नहीं जाना, अपितु समस्त विश्व को अपने ही ज्ञान से प्रकाशित किया और अपने ही किसी एक अंश में समस्त सृष्टि को स्थान देकर भिन्न-भिन्न प्रकार की रचना की ।

रचना के आधार पर विज्ञान-वेत्ताओं ने सृष्टि के उपयोग की अनेक पद्धतियाँ निर्मित कीं और उनका आश्रय लेकर भिन्न-भिन्न प्रकार के भोगों का सम्पादन किया; किन्तु वे भोग के भयंकर परिणाम से अपने को न बचा सके । ज्यों-ज्यों भोग-सामग्री का सम्पादन करते रहे, त्यों-त्यों भोग की रुचि सबल तथा स्थाई होती रही और ज्यों-ज्यों भोग की रुचि सबल होती गई त्यों-त्यों दीनता, अभिमान, पराधीनता आदि दुर्बलताएँ भी बढ़ती गईं । उन दुर्बलताओं की व्यथा से व्यथित होने पर अनन्त के मंगलमय विधान से जो प्रकाश मिला, उससे विश्व के प्रकाशक की ओर दृष्टि गई । उधर जाते ही वह प्रकाशक की प्रीति हो गई । उसी की अभिव्यक्ति जब बाह्य जीवन पर हुई, तब अनेक भेद होने पर भी प्रीति की एकता स्वत: परस्पर में रस प्रदान करने लगी, जिसको पाकर भोग की रुचि का नाश हो गया और फिर प्रीति और प्रीतम से भिन्न की सत्ता ही न रही ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 20-21)