Wednesday 8 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Wednesday, 08 April 2015 
(वैशाख कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०७२, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

उस प्रीतम ने अपने को छिपाया; किन्तु अपने मंगलमय विधान से मानव को विवेक प्रदान किया, जिसके प्रकाश में बुद्धि-दृष्टि तथा इन्द्रिय-दृष्टि कार्य करती है । निज-विवेक मंगलमय विधान का प्रतीक है । जो मानव मिले हुए बल का विवेक के प्रकाश में उपयोग करते हैं, उन्हें कर्त्तव्यपरायणता प्राप्त होती है और उनका जीवन जगत् के लिए उपयोगी सिद्ध होता है । इस दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट वही है, जिससे व्यक्ति का जीवन समाज के लिए उपयोगी सिद्ध हो । जिसका जीवन जगत् के लिए उपयोगी सिद्ध होता है, उसका जीवन अपने लिए तथा अनन्त के लिए भी उपयोगी सिद्ध होता है ।

जब तक मानव विश्व से प्राप्त वस्तु को व्यक्तिगत मानता है, तब तक उसका जीवन जगत् के लिए उपयोगी सिद्ध नहीं होता; क्योंकि प्राप्त वस्तुओं की ममता उसकी उदारता को आच्छादित कर, उस बेचारे को लोभ, मोह आदि विकारों में आबद्ध कर देती है । उसका परिणाम यह होता है कि वह अप्राप्त वस्तुओं की कामनाओं में उलझ जाता है, जिससे प्रत्येक कार्य के अन्त में अपने आप आने वाली शान्ति भंग हो जाती है । शान्ति के भंग होने से आवश्यक सामर्थ्य का सम्पादन नहीं हो पाता, अर्थात् असमर्थता आ जाती है । जिसके आते ही जो करना चाहिए, वह कर नहीं पाता और जो नहीं करना चाहिए, उसे कर बैठता है; जिसमें प्रीति होनी चाहिए, उसमें प्रीति नहीं होती और जिसमें आसक्ति नहीं रहनी चाहिए, उसमें आसक्ति हो जाती है । इतना ही नहीं, प्राकृतिक विधान के अनुसार जो स्वत: हो रहा है, उससे वह असहयोग नहीं कर पाता, जिसके किए बिना जो नित्य प्राप्त है, उसमें प्रीति नहीं होती । अथवा यों कहो कि उससे योग नहीं होता अथवा उसका बोध नहीं होता, जिससे सब कुछ प्रकाशित है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 21-22)