Thursday, 09
April 2015
(वैशाख कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७२, गुरुवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन
और नीति
जो हो रहा है, उसे कोई रोक नहीं पाता; उसके न होने की बात सोचता भले
ही रहे । असहयोग के बिना अनुकूलता की दासता और प्रतिकूलता का भय नाश नहीं होता और उसका
बोध भी नहीं होता, जिसकी सत्ता से सब कुछ हो रहा है ।
असहयोग का अर्थ द्वेष तथा घृणा नहीं है । जिससे अपना कोई प्रयोजन नहीं
है, उससे विमुख होना ही असहयोग है । अपना प्रयोजन किससे नहीं है ? जिससे जीवन उपयोगी सिद्ध न हो । जिसका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है,
उसके सहयोग से जीवन उपयोगी सिद्ध नहीं होता । स्वतन्त्र अस्तित्व किसका
नहीं है ? जो हो-होकर मिट रहा है । यही 'हो रहा है' का अर्थ है ।
विश्व की वस्तु को व्यक्तिगत मान लेना विवेक-विरोधी
मान्यता है । इस मान्यता से न तो अपना ही विकास होता है और न सुन्दर समाज का निर्माण
ही । इस विवेक-विरोधी मान्यता का मानव-जीवन में कोई स्थान ही नहीं है । इस मान्यता
का अन्त होते ही व्यक्ति समाज के अधिकार का पुंज रह जाता है और समाज व्यक्ति की सेवा
का क्षेत्र बन जाता है । सेवा, व्यक्ति और समाज में वास्तविक एकता स्थापित करने में
समर्थ है । सेवा का मूल मन्त्र है - उदारता, जो करुणा और प्रसन्नता
के स्वरूप में प्रकट होकर व्यक्ति और समाज में अनुपम अभिन्नता उत्पन्न कर देती है ।
समाज उदार व्यक्तियों के बिना कभी अपने, को सुन्दर नहीं पाता ।
सुन्दर समाज को राष्ट्र की आवश्यकता नहीं होती । मिले हुए बल के दुरुपयोग से ही राष्ट्र
की आवश्यकता का अनुभव हुआ है । बल का दुरुपयोग विवेक के अनादर में निहित है । अत: विवेकपूर्वक
बल का सदुपयोग करने मात्र से ही संघर्ष का अन्त हो सकता है । इस दृष्टि से बल की अपेक्षा
विवेक को अधिक महत्त्व देना अनिवार्य है । बल का उपयोग अपने अथवा दूसरों के संकल्प
की पूर्ति में ही होता है । अपने संकल्प की पूर्ति का सुख नवीन संकल्प को जन्म देता
है और दूसरों के संकल्प की पूर्ति 'करने के राग' की निवृत्ति में हेतु है । जिसे संकल्प-पूर्ति में जीवन-बुद्धि अनुभव नहीं
होती, उसे किसी भी बल की अपेक्षा नहीं रहती । इसका अर्थ यह नहीं
है कि वह निर्बल हो जाता है, अपितु उसका प्रवेश बल से अतीत के जीवन में हो जाता है
। बल का सदुपयोग एकमात्र निर्बलों की सेवा में ही है, भोग में
नहीं ।
- (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति
पुस्तक से, (Page No. 22-23) ।