Friday, 10
April 2015
(वैशाख कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७२, शुक्रवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन
और नीति
सेवा भोग की रुचि को खा जाती है और सेवक के आवश्यक संकल्प उसके निर्विकल्प
होने पर भी स्वत: पूरे हो जाते हैं; क्योंकि उसका अपना कोई संकल्प नहीं
है । जिसका अपना कोई संकल्प है, वह सेवा नहीं कर सकता । यदि कोई यह कहे कि बल का उपयोग
अपनी रक्षा में है । तो यह बात भी विवेक-विरोधी है; कारण,
कि बल के द्वारा उससे अपनी रक्षा नहीं हो सकती, जिसमें समान बल है अथवा अधिक बल है । अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि
बल की अपेक्षा न अपनी रक्षा में है और न अपने विकास में । बलपूर्वक किया हुआ भोग ह्रास
का हेतु है, विकास का नहीं । बल का सदुपयोग एकमात्र निर्बलों की आदर पूर्वक सेवा में
ही है और बल का सम्पादन भी बल के सदुपयोग में ही निहित है । बल का सदुपयोग तभी सम्भव
होगा, जब मानव यह स्वीकार करे कि मिला हुआ बल निर्बल की धरोहर मात्र है, अपना नहीं
है; क्योंकि अपने लिए बल की अपेक्षा ही नहीं है ।
प्राकृतिक नियम के अनुसार बल का अत्यन्त अभाव किसी भी व्यक्ति के जीवन
में नहीं है, अर्थात् कुछ-न-कुछ बल सभी को मिला है । यदि ऐसा न होता, तो जीवन में कुछ
भी करने का प्रश्न ही उत्पन्न न होता । जब मानव कुछ कर सकता है, तभी करने का प्रश्न
उत्पन्न हुआ है । मिले हुए बल का भोग में व्यय करने से बल का ह्रास और परिणाम में अभाव; सेवा में व्यय करने से
आवश्यक बल की अभिव्यक्ति और परिणाम में चिर-विश्राम है । इस दृष्टि से यह निर्विवाद
सिद्ध हो जाता है कि मिला हुआ बल सेवा के लिए है, अपने लिए नहीं
। अपने लिए तो एकमात्र चिर-विश्राम ही अपेक्षित है । चिर-विश्राम के सम्पादन के लिए
ही सब कुछ करने का प्रश्न है और यही अपने पर दायित्व है । विश्राम का अपहरण किसी अन्य
के द्वारा नहीं होता, अपितु अपने ही प्रमाद से होता है । बेचारा
बल का अभिमानी चिर-विश्राम नहीं पाता । चिर-विश्राम उसी को मिलता है, जिसके जीवन में प्राप्त बल का दुरुपयोग और अप्राप्त बल की कामना नहीं है ।
- (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति
पुस्तक से, (Page No. 23-24) ।