Saturday 11 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Saturday, 11 April 2015 
(वैशाख कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७२, शनिवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

आज मिले हुए बल के दुरुपयोग तथा अप्राप्त बल की कामना ने मानव को 'मानव’ नहीं रहने दिया, अर्थात् उसे विद्यमान मानवता से विमुख कर दिया है । बल का दुरुपयोग रोकने के लिए राष्ट्र, मत, सम्प्रदाय आदि का प्रादुर्भाव हुआ । किन्तु अपने पर अपने विवेक का शासन न रहने से कोई भी पद्धति सर्वांश में सफल न हुई । ऐसी दशा में यह अनिवार्य हो जाता है कि प्रत्येक मानव को निज-विवेक के प्रकाश में ही मिले हुए बल का सदुपयोग करना है, अर्थात् अपने प्रति स्वयं को ही न्याय करना परम आवश्यक है। इसके बिना न तो बल का सदुपयोग ही हो सकता है और न वर्तमान निर्दोषता ही सुरक्षित रह सकती है । इतना ही नहीं, किए हुए बल के दुरुपयोग का प्रभाव भी नहीं मिट सकता, जिसके बिना मिटे व्यर्थ-चिन्तन का नाश नहीं होता, उसके हुए बिना निश्चिन्तता तथा निर्भयता की अभिव्यक्ति नहीं होती ।

निश्चिन्तता के बिना चिर-विश्राम कहाँ ? और चिर-विश्राम के बिना वास्तविक जीवन में प्रवेश ही नहीं हो सकता । निर्भयता के बिना कर्त्तव्य को 'कर्त्तव्य' जानकर उसका पालन और अकर्त्तव्य को 'अकर्त्तव्य' जानकर उसका त्याग नहीं हो पाता । किसी भय से बुराई न करने पर भी बुराई का नाश नहीं होता; क्योंकि बुराई-जनित सुख का राग अंकित रहता है । किसी प्रलोभन से प्रेरित होकर किया हुआ कर्त्तव्य-कर्म चिर-विश्राम न देकर कर्त्तव्य के अभिमान तथा फलासक्ति में ही आबद्ध करता है । अत: अकर्त्तव्य को 'अकर्त्तव्य' और कर्त्तव्य को 'कर्त्तव्य' जानकर ही मानव कर्त्तव्य-परायण होकर चिर-विश्राम पाता है ।

चिर-विश्राम में ही मानव के उद्देश्य की पूर्ति निहित है; कारण, कि विश्राम प्राप्त होने पर वास्तविक जीवन से अभिन्नता स्वत: हो जाती है । पर यह तभी सम्भव होगा, जब मानव निज-विवेक के प्रकाश में ही मिले हुए बल का सदुपयोग करने की नीति को अपनाए । अतएव समस्त अभावों का अभाव एवं संघर्ष का अन्त करने के लिए बल की अपेक्षा विवेक को अधिक महत्व देना अनिवार्य है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 24-25)