Sunday 12 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Sunday, 12 April 2015 
(वैशाख कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७२, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

न्याय की सफलता निर्दोषता की अभिव्यक्ति में है और जिस पद्धति द्वारा ऐसे न्याय को चरितार्थ किया जाता है, वही सुन्दर नीति है । वह न्याय, न्याय ही नहीं है, जो अपराधी को निरपराध बनाने में समर्थ न हो । न्याय से किसी का ह्रास नहीं होता, अपितु विकास ही होता है । न्याय भिन्नता को अभिन्नता में परिवर्तित कर पूर्ण होता है, अर्थात् न्याय दो को एक करता है, तभी न्याययुक्त जीवन से शान्ति की स्थापना होती है । इस दृष्टि से न्याय मानव-जीवन का मुख्य अंग है ।

न्याययुक्त प्राणियों से किसी के अधिकार का अपहरण नहीं होता; क्योंकि न्याय कर्त्तव्य की प्रेरणा देता है । कर्त्तव्य का फल विद्यमान राग की निवृत्ति है, किसी अन्य वस्तु की प्राप्ति नहीं । कर्त्तव्यनिष्ठ प्राणी के जीवन में कर्त्तव्य का ही महत्त्व है । यह नियम है कि विद्यमान राग-निवृत्ति के बिना न्याय को प्रेम में परिणत करने की सामर्थ्य ही नहीं आती । जो न्याय प्रेम में विलीन नहीं होता, वह भेद का अन्त करने में समर्थ नहीं है । भेद का अन्त हुए बिना न तो संघर्ष का ही नाश होता है और न शान्ति की स्थापना ही होती है । शान्ति के बिना सामर्थ्य की अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है और सामर्थ्य के बिना स्वाधीनता सुरक्षित नहीं रहती, जो सभी को अभीष्ट है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 25-26)