Monday, 13
April 2015
(वैशाख कृष्ण नवमीं, वि.सं.-२०७२, सोमवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन
और नीति
पारस्परिक भिन्नता ही परस्पर में वैमनस्य और संघर्ष को जन्म देती है ।
भिन्नता का एकमात्र कारण अपने अधिकार और दूसरे के कर्त्तव्य पर दृष्टि रखना है । यद्यपि
किसी का अधिकार ही किसी का कर्त्तव्य है, परन्तु अपने अधिकार को सुरक्षित
रखने में स्वाधीनता नहीं है, अपितु स्वाधीनता है दूसरों का अधिकार
सुरक्षित रखने में । स्वाधीनता-सम्पादन का साधन भी स्वाधीन है । इस कारण अपने अधिकार
पर दृष्टि रखना भूल है । वास्तव में तो अधिकार कर्त्तव्य का दास है । कर्त्तव्यनिष्ठ
प्राणी की दृष्टि अपने अधिकार पर नहीं रहती, अपितु दूसरों के
अधिकार पर रहती है । अधिकार की स्मृति कर्त्तव्य की विस्मृति में हेतु है । कर्त्तव्य
की विस्मृति ही अकर्त्तव्य को जन्म देती है, जिसका मानव-जीवन
में कोई स्थान ही नहीं है । अधिकार की पूर्ति में नवीन राग और अपूर्ति में क्षोभ तथा
क्रोध की उत्पत्ति होती है, जिसके उत्पन्न होते ही उद्देश्य की
विस्मृति अपने आप हो जाती है । उद्देश्य को भूलते ही कर्त्तव्य का ज्ञान आच्छादित हो
जाता है । इस दृष्टि से अधिकार-लालसा ह्रास का मूल है।
अधिकार-लालसा का अन्त होते ही राग तथा क्रोध का नाश हो जाता है । क्रोध-रहित
होते ही क्षमाशीलता, उदारता, स्नेह, निर्वैरता आदि दिव्य-गुणों की अभिव्यक्ति
स्वतः होती है और राग-रहित होते ही स्वाधीनता अपने आप आ जाती है, जिसके आते ही अनुकूलता की दासता तथा प्रतिकूलता का भय अपने आप मिट जाता है
और पक्षपात की गन्ध भी नहीं रहती । उसके न रहने से वाणी में सत्यता आ जाती है । उसका
निर्णय सभी के लिए सदा हितकर सिद्ध होता है, जो वास्तविक न्याय
है । अधिकार-लालसा में आबद्ध प्राणी कभी न्यायाधीश नहीं हो सकता । यही कारण है कि परस्पर
समझौता होने पर भी एकता नहीं होती । संघर्ष कुछ काल के लिए दब भले ही जाए, उसका नाश नहीं होता । दबा हुआ संघर्ष अनेक रूप धारण कर प्रकट होता रहता है
। जिस प्रकार किसी वृक्ष का मूल तथा बीज बने रहने पर वृक्ष बार-बार उगता ही रहता है,
उसी प्रकार अधिकार-लालसा रहते हुए संघर्ष की उत्पत्ति होती ही रहती है
।
- (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति
पुस्तक से, (Page No. 26-27) ।