Tuesday, 14 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Tuesday, 14 April 2015 
(वैशाख कृष्ण दशमीं, वि.सं.-२०७२, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

अधिकार-लालसा का नाश होने पर अपना अस्तित्व ही न रहेगा, उद्देश्य की पूर्ति ही न होगी, निर्वाह होना भी दुर्लभ हो जाएगा, अथवा निर्वाह नहीं होगा - ये सभी बातें निर्मूल हैं । अधिकार का त्याग असंगता और अभिन्नता प्रदान करता है । असंगता दिव्य-जीवन से और अभिन्नता परम प्रेम से अभिन्न कर देती है, जो मानवमात्र की माँग है । इतना ही नहीं, अधिकार का त्याग विपक्षी में कर्त्तव्य की भावना जाग्रत करता है । यह नियम है कि भाव-शुद्धि में ही कर्म की शुद्धि निहित है । कर्म सीमित और भाव असीम है । भाव के अनुरूप कर्म भाव में सजीवता लाता है और शुद्ध भावना कर्म को शुद्ध बनाती है । अधिकार के त्याग से ही परस्पर एकता और समाज में कर्त्तव्यपरायणता का प्रादुर्भाव होता है । इस दृष्टि से अधिकार-त्याग ही सुन्दर समाज के निर्माण में हेतु है ।

अधिकार-लालसा से रहित प्राणी को किसी भी परिस्थिति में किसी से भी भय नहीं होता और न उससे किसी को भय होता है । भय का आदान-प्रदान अधिकार-लोलुप प्राणियों में ही होता है । भय-युक्त जीवन किसी को प्रिय नहीं है। प्राकृतिक विधान के अनुसार अधिकार-रहित प्राणियों की रक्षा स्वतः होती है और अधिकार-अपहरण करने वालों का नाश अवश्यम्भावी है । इस मंगलमय विधान का आदर करने पर दूसरों के अधिकार की रक्षा और अपने अधिकार के त्याग की अभिरुचि स्वत: जाग्रत होती है, जो विकास का मूल है । इस दृष्टि से अधिकार की अपेक्षा कर्त्तव्य को ही महत्व देना है अथवा यों कहो कि कर्त्तव्य में ही अपना अधिकार है । अधिकार-लालसा से युक्त कर्त्तव्य केवल व्यापार मात्र है अथवा यों कहो कि पशुता है । अधिकार-शून्य कर्त्तव्य ही कर्त्तव्य है । जो मानव अधिकार त्याग कर कर्त्तव्य का पालन करते हैं, वे न्याय को प्रेम में विलीन कर सर्वोत्कृष्ट उद्देश्य को प्राप्त करने में समर्थ होते हैं, यह निर्विवाद सत्य है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 27-28)