Wednesday, 15 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Wednesday, 15 April 2015 
(वैशाख कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७२, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

अपने को अथवा दूसरों को बुरा समझने का एकमात्र कारण भूतकाल की घटनाओं के आधार पर वर्तमान की निर्दोषता को आच्छादित कर देना है । क्योंकि कोई भी व्यक्ति सर्वांश में कभी भी बुरा नहीं होता और न सभी के लिए बुरा होता है । बुराई उत्पत्ति-विनाश-युक्त है, नित्य नहीं । जो नित्य नहीं है, उससे नित्य सम्बन्ध सम्भव नहीं है । ऐसी दशा में अपने को अथवा दूसरों को सदा के लिए बुरा मान लेना प्रमाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।

वर्तमान सभी का निर्दोष हैयह सभी का अनुभव है । जब हम अपने किसी भी दोष की चर्चा करते हैं, तब यह मानना ही पड़ता है कि वह दोष भूतकाल का है । वर्तमान में तो किए हुए दोष की स्मृति हैदोष-युक्त प्रवृत्ति नहीं। किसी प्रवृत्ति की स्मृति किसी का स्वरूप नहीं है । जो स्वरूप नहीं हैउसको अभेद भाव से अपने अथवा दूसरों में आरोप करनाक्या न्याययुक्त निर्णय है कदापि नहीं । अतः अपने को अथवा दूसरों को वर्तमान में बुरा समझना विवेक-विरोधी निर्णय है । इस निर्णय से अपने में अपराधी-भाव दृढ़ होता है और दूसरों के प्रति घृणा उत्पन्न होती है । अपराधी-भाव आरोपित करकोई भी निरपराध नहीं हो सकताक्योंकि जैसा अहम् भाव होता है, वैसी ही प्रवृत्ति होती है । अहम् प्रवृत्ति का मूल है अथवा यों कहो कि कर्त्ता ही कर्म के रूप में व्यक्त होता है । इस दृष्टि से अशुद्ध कर्त्ता से शुद्ध कर्म की उत्पत्ति सम्भव ही नहीं है । शुद्ध कर्म शुद्ध कर्त्ता से  ही होता है । कर्म की शुद्धि तभी हो सकती हैजब कर्त्ता शुद्ध हो जाए । अत: कर्म की शुद्धि के लिए कर्त्ता में शुद्धता की प्रतिष्ठा करना अनिवार्य हैजो वास्तव में विवेक-सिद्ध है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 28-29) ।