Saturday 4 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Saturday, 04 April 2015 
(चैत्र पूर्णिमा, श्री हनुमान जयंती, वि.सं.-२०७२, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

निज-विवेक सूर्य के समान और बल नेत्र के समान है । जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से ही नेत्र यथेष्ट कार्य करता है, उसी प्रकार निज-विवेक के प्रकाश में प्राप्त बल का सद्व्यय होता है । परन्तु जब व्यक्ति बल को विवेक की अपेक्षा अधिक महत्व देने लगता है, तब बल का सदुपयोग नहीं हो पाता । उसका बड़ा ही भयंकर परिणाम यह होता है कि संघर्ष का जन्म हो जाता है । जो बल परस्पर में एकता के लिए मिला था, वह बल एक दूसरे के विनाश का हेतु बन जाता है । यद्यपि किसी को अपना विनाश अभीष्ट नहीं है, परन्तु फिर भी विवेक के अनादर तथा बल के अभिमान में आबद्ध होकर व्यक्ति विवेक-विरोधी कर्म करने लगता है ।

विवेक-विरोधी कर्म के कारण व्यक्ति कर्त्तव्य से विमुख हो जाता है । कर्त्तव्य से विमुख होते ही जीवन में अधिकार-लालसा और दूसरों के कर्त्तव्य की स्मृति उत्पन्न होती है, अर्थात् जीवन में पराधीनता आ जाती है । पराधीनता के आते ही जड़ता तथा अभाव में आबद्ध हो जाना अनिवार्य है । इस दृष्टि से कर्त्तव्य की विस्मृति में ही समस्त संघर्ष निहित है ।

मानव-जीवन में विवेक-विरोधी कर्म का कोई स्थान ही नहीं है; क्योंकि वह अपना जाना हुआ असत् है । अपने जाने हुए असत् के त्याग में ही अकर्त्तव्य का नाश है । यह नियम है कि अकर्तव्य का नाश होते ही कर्त्तव्य-परायणता अपने-आप आ जाती है, जिसके आते ही संघर्ष सदा के लिए मिट जाते हैं और अनेक बाह्य भेद होने पर भी आन्तरिक एकता प्राप्त होती है । एकता में ही शान्ति, सामर्थ्य  तथा स्वाधीनता निहित है । इस दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति, वर्ग, समाज तथा देश को आन्तरिक एकता प्राप्त करना अनिवार्य है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 18)