Thursday 2 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Thursday, 02 April 2015 
(चैत्र शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०७२, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

न्याय का अर्थ किसी का विनाश करना नहीं है, अपितु किए हुए अपराध की पुन: उत्पत्ति ही न हो, यही न्याय की सफलता है । यह सफलता तभी प्राप्त होगी, जब व्यक्ति अपने पर अपना शासन करे। अपने दोष का स्पष्ट ज्ञान उन्हीं को होता है, जो पर-दोष-दर्शन नहीं करते । इतना ही नहीं, यदि कोई स्वयं अपना दोष स्वीकार करे, तब भी वे यही कहते हैं कि “तुम वर्तमान में तो निर्दोष ही हो । यदि भूतकाल में कोई भूल हुई है, तो उसे अब मत करना ।“ भूतकाल के दोषों के आधार पर वर्तमान की निर्दोषता में दोष का आरोप करना अपने प्रति अन्याय है । इसका अर्थ यह नहीं है कि भूतकाल की भूल का परिणाम परिस्थिति के रूप में अपने सामने नहीं आएगा, अवश्य आएगा । किन्तु भूतकाल के आधार पर वर्तमान की निर्दोषता में दोष का आरोप करना दोष-युक्त प्रवृत्ति को जन्म देना है । पर इस रहस्य को कोई बिरले ही विज्ञानवेत्ता जानते हैं ।

सर्वांश में कोई भी व्यक्ति कभी भी दोषी नहीं होता । तो फिर अपने को अथवा दुसरे को दोषी मानना क्या प्रमाद नहीं है ? दोष की उत्पत्ति हुई, यह बात ठीक है; उसकी चिन्ता करना है, यह भी आवश्यक है । परन्तु आंशिक दोष के आधार पर अपने को अथवा दूसरे को सर्वांश में दोषी स्वीकार करना न्यायसंगत नहीं है । की हुई भूल की वेदना अनिवार्य है, न दोहराने का दृढ़ संकल्प भी परम आवश्यक है । वर्तमान में अपने को अथवा दूसरे को निर्दोष स्वीकार करना भी युक्तियुक्त है । यही वास्तव में न्याय है । न्याययुक्त जीवन से समाज में अपने प्रति न्याय करने की सद्भावना स्वत: जाग्रत होती है, जिसके होते ही, दोष को ‘दोष’ जानकर, उसे त्याग करने का सद्भाव स्वत: अभिव्यक्त होता है । किसी भय से दोष का ऊपर से त्याग भले ही हो जाए; दोष-जनित सुख का राग नाश नहीं होता । उसी का परिणाम यह होता है कि किसी को भय देकर निर्दोष नहीं बनाया जा सकता; कारण, कि भय स्वयं ही एक बड़ा दोष है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 16-17)