Wednesday, 1 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Wednesday, 01 April 2015 
(चैत्र शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०७२, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

न्याय-प्रियता के उदित होते ही किए हुए दोष को दोहराने की तो बात ही नहीं रहती; दोष-जनित सुख का राग मिटाने के लिए अपने-आप दुःखी होने की बात शेष रहती है । वह दुःख कितना हो, इसका ठीक-ठीक निर्णय यही है कि दुःख इतना अवश्य हो, जिससे दोष-जनित सुख का राग सदा के लिए मिट जाए । यह नियम है कि जिसके होने से व्यक्ति दुःखी हो जाता है, उसका न होना और जिसके न होने से व्याकुल हो जाता है, उसका होना स्वाभाविक है । अत: दोष के उत्पन्न होने की व्यथा और निर्दोषता-प्राप्ति की आकुलता मानव को निर्दोष बनाने में समर्थ है ।

किये हुए दोष के परिणाम में जब किसी अन्य के द्वारा न्याय किया जाता है, तब उतना ही दुःख नहीं दिया जाता, जितने से दोषी दोष-जनित सुख के राग से रहित हो जाए और उसके जीवन से दोष-युक्त प्रवृत्ति सदा के लिए मिट जाए । यह सभी को मान्य होगा कि दो व्यक्तियों की भी बनावट सर्वांश में एक नहीं है । इस कारण किसको कितने दण्ड से कितना दुःख होता है, इसका निर्णय कोई भी न्यायाधीश कर नहीं सकता । तो फिर किसी अन्य के द्वारा यथेष्ट न्याय सम्भव ही नहीं हो सकता और न्याय किये बिना निर्दोषता सुरक्षित नहीं रह सकती । अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि प्रत्येक मानव को अपने प्रति स्वयं न्याय करना होगा ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 15-16)