Thursday 4 September 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Thursday, 04 September 2014 
(भाद्रपद शुक्ल दशमीं, वि.सं.-२०७१, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं” का विवेचन

नित-नव रस की भूख ज्यों-ज्यों सबल तथा स्थायी होती जाती है, त्यों-त्यों स्वाधीनता-जनित रस से असंगता होती जाती है । असंगता की पूर्णता स्वत: प्रीति में परिणत होती है । इस दृष्टि से मानव की पूर्णता एकमात्र प्रीति से अभिन्न होने में ही है । आसक्ति का नाश होते ही शान्ति, शक्ति, मुक्ति स्वत: प्राप्त होती है । किन्तु शक्ति, मुक्ति आदि का आश्रय अहम् को परिच्छिन्नता के रूप में जीवित रखता है । परिच्छिन्नता के रहते हुए भेद और भिन्नता का नाश नहीं होता और उसके नाश हुए बिना नित-नव रस की अभिव्यक्ति नहीं होती, जो वास्तविक जीवन है । यद्यपि शान्ति, शक्ति और स्वाधीनता स्वभाव से ही प्रिय है, पर प्रियता का रस ऐसा विलक्षण है कि उसके लिए स्वाधीनता आदि का न्यौछावर करना सहज तथा स्वाभाविक हो जाता है । अशान्ति की व्यथा मिटाने में शान्ति और असमर्थता की वेदना को मिटाने में शक्ति एवं पराधीनता की पीड़ा के नाश में स्वाधीनता बड़े ही महत्त्व की वस्तु है ।

मानव बुद्धि-दृष्टि तथा इन्द्रिय-दृष्टि से अपने को अशान्ति, असमर्थता एवं पराधीनता में आबद्ध पाता है । इस कारण शान्ति, शक्ति और स्वाधीनता को महत्त्व देता है । वास्तव में तो शान्ति, सामर्थ्य और स्वाधीनता स्वत: प्रीति में परिणत होती है; कारण, कि शान्ति, शक्ति और स्वाधीनता में 'निज-रस' है । निज-रस में सन्तुष्ट हो जाना, अपनेपन को जीवित रखना है । अपनापन कितना ही महान् क्यों न हो, किन्तु उसमें किसी न किसी रूप में परिच्छिन्नता रहती है । जो यह अनुभव करता था कि 'मैं अशान्त हूँ', 'मैं असमर्थ हूँ', ‘पराधीन हूँ', वही अनुभव करता है कि 'मैं शान्त हूँ', 'समर्थ हूँ', 'स्वाधीन हूँ' । पराधीनता आदि दोषों की अपेक्षा स्वाधीनता आदि बड़े ही महत्त्व की वस्तुएँ हैं, परन्तु 'मैं' स्वाधीन हूँ, इस प्रकार की सीमा तो रहती ही है । परिच्छिन्नता रहते हुए किसी न किसी प्रकार की माँग रहती ही है, जिसके रहते हुए पूर्णता कैसी ? प्रीति का प्रादुर्भाव होने पर माँग का अन्त हो जाता है । इस दृष्टि से प्रेम के प्रादुर्भाव में ही मानव की पूर्णता है । यह मानव का अपना दर्शन है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 20-21)