Tuesday, 02
September 2014
(भाद्रपद शुक्ल राधा-अष्टमी, वि.सं.-२०७१, मंगलवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं”
का विवेचन
ममता का नाश, जिज्ञासा की पूर्ति और आस्था में आत्मीयता होने पर एक-मात्र प्रेम-तत्त्व ही
शेष रहता है । प्रीति में अस्तित्व उसी का है, जिसकी वह प्रीति
है । प्रीति सतत् गतिशील तत्त्व है; ‘यह' की ओर गति होने पर आसक्ति के रूप में भासती है, 'यह'
से विमुख होने पर विरक्ति तथा 'वह' की ओर गतिशील होने पर अनुरक्ति होती है । यदि प्रतीति का स्वतन्त्र अस्तित्व
होता, तो आसक्ति विरक्ति में परिणत न होती और यदि कोई स्वतन्त्र
सत्ता न होती, तो विरक्ति अनुरक्ति में परिणत न होती । पर मानव-दर्शन
से यह स्पष्ट विदित होता है कि आसक्ति विरक्ति में और विरक्ति अनुरक्ति में परिणत होती
है । सर्वांश में आसक्ति का नाश होते ही विरक्ति का भास होता है और विरक्ति की पूर्णता
होते ही अनुरक्ति का प्रादुर्भाव होता है । आसक्ति, विरक्ति और
अनुरक्ति उसी समय तक अलग-अलग प्रतीत होती हैं, जिस समय तक सर्वांश
में आसक्ति का नाश नहीं होता । पराधीनताजनित वेदना आसिक्त के नाश में हेतु है ।
आसक्ति का नाश होते ही विरक्ति की अभिव्यक्ति होती है, जो स्वाधीनता की जननी है
। विरक्ति की पूर्णता स्वाधीनता-जनित रस में सन्तुष्ट नहीं रहने देती। बस,
उसी काल में विरक्ति स्वत: अनन्त की अनुरक्ति हो, अनन्त को रस प्रदान करती है । आसक्ति सुख-लोलुपता और विरक्ति स्वाधीनता में
परिणत होती है । किन्तु स्वाधीनता-जनित रस अखण्ड होने पर भी नित-नव नहीं है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की
खोज पुस्तक से, (Page No. 19-20)।